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________________ होसह आरिसाहुँ कञ्चुइ-अवस्थ अम्हारिसाहुँ (हो) भवि 3/1 अक (आरिस) 6/2 वि [(कञ्चुइ)-(अवत्था) 1/1] (अम्हारिस) 6/2 वि ऐसे (लोगों) के कञ्चुको को अवस्था हम जैसों की को कौन ह महि कहो तरगत दव्यु सिंहासणु छत्तई अथिरु सव्वु (क) 1/1 सवि (अम्ह) 1/1 स (का) 6/1 सवि (मही) 1/1 (क) 6/1 स अव्यय (दव्व) 1/1 (सिंहासण) 1/1 (छत्त) 1/2 (अथिर) 1/1 वि (सव्व) 1/1 सवि किसकी पृथ्वी किसका सम्बन्धवाचक परसर्व धन सिंहासन छन अस्थिर सभी 3. जोव्वणु सरोरु जीविउ धिगत्यु (जोव्वण) 211 यौवन (सरीर) 2/1 शरीर (जीविअ) 21 जीवन को I(धिग)+ (अत्थु)] धिग-अव्यय धिक्कार, अत्थु (अत्थ) 2/1 धन (संसार) 1/1 संसार (असार) 1/1 वि असार (अणत्थ) 1/1 वि हानिकारक (अत्थ) 1/1 धन संसार प्रसारु अणत्यु विसु विसय बन्धु (विस) 1/1. (विसय) 1/1 (बन्धु) 1/1 [ (दिढ)-(वन्धण) 1/2] [(घर)-(दार) 1/2] {(परिहव)-(कारण) 1/2] | विष विषय (भोग) बन्धु (परिवारजन) कठोर बन्धन घर और पत्नी दुःख देने के कारण विढ-वन्धगाई घर-दाराई परिहव-कारगाई 5 सुत (पुत्र) सुय सत्तु विढत्तउ अवहरन्ति (सुय) 1/2 (सत्तु) 1/2 (विढत्तअ) 2/1 वि अस्वा . (अवहर) व 3/2 सक शत्रु उपाजित (धन) को छीन लेते हैं अपभ्रंश काव्य सौरभ । [ 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001710
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1992
Total Pages358
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, L000, & L040
File Size13 MB
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