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________________ 77.4 [1] उसको सुनकर प्रधान राजा विभीषण ने कहा (कि) (चूंकि) दसमुखवाले (रावण) के द्वारा (यह। जगत अपयश से भर दिया गया है (इसलिए) (मैं) इतना रोता हूँ । [2] (प्रायः) देखा गया (है) (कि) जल-बिन्दु के समान (अस्थिर) तथा दोष के घर इस शरीर के द्वारा नाश को प्राप्त हुया गया (है) (इतना तो मैं समझता हूँ)। [3] (और यह भी समझता हूँ) (क) (शरीर) अस्थिर-स्वभाववाले इन्द्र-धनुष के समान है (और) शीघ्र (परिवर्तनशील) अवस्था होने से बिजली की चमक के समान है। [4] (तथा) (वह) केले के पेड़ के साररहित भीतर (के) (माग) के समान है (तथा) पक्षियों के (प्रिय) भोजन पके फल के समान है। [11] (खेद है कि रावण के द्वारा) (इस शरीर से) तप नहीं किया गया, मनरूपी घोड़ा वश में नहीं किया गया, मोक्ष नहीं साधा गया (तथा) परमेश्वर नहीं पूजा गया। [12] (और मी) (मोक्ष प्राप्ति के लिए) व्रत धारण नहीं किया गया (तथा) (सबके द्वारा) रोका हुआ यह विनाश किया गया । (उसके द्वारा) निश्चय ही अपना (जीवन ) तिनके के समान (तुच्छ) बनाया गया । अपभ्रंश काव्य सौरभ ] [ 27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001710
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1992
Total Pages358
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, L000, & L040
File Size13 MB
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