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पाठ-16
पाहुडदोहा
[1] जो देव (समतावान व्यक्ति) (आत्मा के) स्वभाव और परभाव की परम्परा के भेद को समझाता है, वह महान् (होता है) (जिस प्रकार) (प्रकाश और अन्धकार की परम्परा के भेद को दिखानेवाला) सूर्य महान् (होता है), चन्द्रमा महान् (होता है) (तथा) दीपक (भी) महान् (होता है)।
[2] जो भी सुख स्वयं के अधीन (रहता है), (तू) उससे ही सन्तोष कर । हे मूर्ख ! दूसरों के (अधीन) सुख का विचार करते हुए (व्यक्तियों) के हृदय में कुम्हलान (होती है), (जो) (कभी) नहीं मिटती है !
[3] जो (इन्द्रिय-) विषयों (से उत्पन्न) सुखों को सब ओर से भोगते हुए (भी) (उनको) कभी (भी) हृदय में धारण नहीं करते हैं, वे (व्यक्ति) शीघ्र (ही) अविनाशी सृख को प्राप्त करते हैं, इस प्रकार जिनवर (समतावान व्यक्ति) कहते हैं।
[4] (जो) (व्यक्ति) (इन्द्रिय-) विषयों के सुखों को न भोगते हुए भी (उनके प्रति) प्रासक्ति को हृदय में रखते हैं, (बे) मनुष्य नरकों में गिरते हैं, जैसे बेचारा सालिसित्थ (नरक में) (पड़ा था)।
[5] (जो) (व्यक्ति) अापत्ति में अटपट बड़बड़ाता है (उससे) (तो) लोक (ही) खुश किया जाता है (और कोई लाभ नहीं होता है), किन्तु (आपत्ति में) मन के कषायरहित होने पर (और) अचलायमान और दृढ़ होने पर (यहाँ) पूज्यतम जीवन प्राप्त किया जाता है।
[6] धंधे में पड़ा हुग्रा सकल जगत ज्ञानरहित (होकर) (हिंसा आदि के) कर्मों को करता है, (किन्तु) मोक्ष (शान्ति) के कारण प्रात्मा को एक क्षण भी नहीं विचारता है ।
[7] घर, नौकर-चाकर, शरीर (तथा) इच्छित वस्तु को अपनी मत जानो, (चूंकि) (वे) (सब) (प्रात्मा से) अन्य (हैं) । (वे) (सब) कर्मों के अधीन बनावटी (स्थिति) (है) । (ऐसा) योगियों द्वारा प्रायम में बताया गया है ।
[8] हे जीव ! (तू) आसक्ति के कारण परतन्त्रता में डूबा है । (इस कारण से) जो दुःख (है) वह (तेरे द्वारा) सुख (ही) माना गया (है) और जो (वास्तविक) सुख (है) वह (तेरे द्वारा) दुःख ही (समझा गया है)। इसलिए तेरे द्वारा परम श न्ति प्राप्त नहीं की गई (है)।
अपभ्रंश काव्य सौर म ]
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