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सुरवरु
चित सग्गवासि
(सुरवर) 1/1 (चिंत) व 3/1 सक [(सग्ग)-(वासि) 1/1 वि] अव्यय (जणणी) 1/1 (अम्ह) 6/1 स (हुव→हुअ=हुआ) भूकृ 1/1 [(सोक्ख)-(रासि) 1/1 वि]
श्रेष्ठ देव विचारता है स्वर्ग का वासी क्या मा मेरी
जणरिण मझ
सोक्खरासि
सुख की खान
9. जाइवि
संबोहमि ताहि
अज्ज
जिम सिज्म तहि परलोइ
(जा+इवि) संकृ (संबोह) व 1/1सक (ता)3 6/1 स अव्यय अव्यय (सिज्झ) व 3/1 सक (ता) 6/1 स (परलोअ) 7/1 (कज्ज) 1/1
जाकर समझाता हूँ (समझाउँगा) उसको माज जिससे सिद्ध होता है (सिद्ध हो) उसका परलोक में कार्य
10. अण्णु
दूसरी
रिणयगुरु-चरणारविंद
(अण्ण) 2/1 वि अव्यय
भी [(रिणय)+ (गुरु)+ (चरण)+ (अरविंद)] निज गुरु के चरणरूपी [(रिणय) वि-(गुरु)-(चरण)-(अरविंद)2/2] कमलों को (पणम+अवि) संकृ
प्रणाम करके (जा+ इवि) संकृ
जाकर [[(गइ)-(मल) 1/1] वि]
मलरहित (अणिद) 1/1 वि
निदारहित
परमवि जाइवि गइमल अणिद
11. इय
चितिवि प्रायउ तहिं सुरेसु मायई
(इया) 2/2 सवि (चित+इवि) संकृ (आयअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक अव्यय (सुरेस) 1/1 (माया-→मायाए→मायाइ→माया) 3/1
इनको सोचकर आया वहाँ उत्तम देव माया से
1. हुअ→भूष= भूत (प्राकृत कोश)। 2. स्त्रीलिंग शब्दों की षष्ठी विभक्ति ए.व. में 'हि' प्रत्यय भी प्रयोग में आता है (श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का
अध्ययन, पृ. 157)। 3. कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे.प्रा.व्या. 3-134)
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[ अपभ्रंश काव्य सौरम
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