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________________ स्वमार्ग में समग्गा अम्हई गिण्हाविज्जहु लग्गा [(स) वि-(मग्ग)17/1] (अम्ह) 1/2 स (गिह+आवि+ इज्ज) प्रे. व कर्म 1/2 सक। (लग्ग) भूकृ4/2 अनि ग्रहण कराये जाते हैं लगे हुए 10. चितेवि तम्मि छुद्ध निउ भल्लउ एक्केक्कउ (चित+रवि) संकृ (त) 7/1 स (छुद्ध) 1/1 वि (दे) (निअ) 2/1 वि (भल्लअ) 2/1 'अ' स्वार्थिक [(एक्क)+ (एक्कउ)] [(एक्क)-(एक्कअ) 1/1 वि 'अ' स्वाथिक] [(मणि)-(रयण) 1/1] (गरिल्लअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक सोचकर उस (विषय) में डाल दिया गया निज भले को एक-एक मरिगरयणु गरिल्लउ मरिणरत्न श्रेष्ठ वह पूर्ण कर दिया गया करके 11. सो संपुण्णु करेवि पवत्तई पहाएवि तित्थे निययघर पत्तई (त) 1/1 सवि (संपुण्ण) भूकृ 1/1 अनि (कर+एवि) संकृ (पवत्त) भूकृ 1/2 अनि . (हा+एवि) संकृ (तित्थ) 7/1 [(नियय)-(घर) 2/1] (पत्त) भूकृ 1/2 अनि प्रवृत्त हुए स्नान करके तीर्थ में अपने घर को 12. प्रह छरणदिणि महिलाए कहिज्जा रूवउ अव्यय [(छण)-(दिण) 7/1] (महिला) 3/1 (कह) व कर्म 3/1 सक (रूवअ) 1/1 अव्यय (नाह) 8/1 (विलस) व कर्म 3/1 सक तब उत्सव के दिन पर पत्नी के द्वारा कहा जाता है (गया) रुपया आज हे नाथ भोग किया जाता है (जाए) नाह विलसिज्ज 13. संखिरिण खरगड कलसु जहिं (संखिणि) 1/1 (खण) व 3/1 सक (कलस) 1/1 अव्यय संखिरगी खोदता है कलश जहां पर 1. श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 147 । अपभ्रंश काव्य सौरभ ] [ 101 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001710
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1992
Total Pages358
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, L000, & L040
File Size13 MB
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