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________________ पाठ-11 सुदंसरणचरित सन्धि -3 3.1 सुतरंगहे गंगहे गोउ किर जाव नम्मि राउ गच्छा (सुतरंग→(स्त्री) सुतरंगा) 5/1 वि (गंगा) 5/1 (गोअ) 1/1 अव्यय अव्यय (जम्म)7/1 अव्यय (गच्छ) व 3/1 सक मनोहर तरंगवाली गंगा नदी से गोप पादपूरक जब तक पुनर्जन्म में नहीं जाता है (गया) 10. ता सुहमइ .. जिरणमइ सयरणयले सुत्तिय सिविरणय पेच्छा अव्यय (सुहमइ) 1/1 वि (जिणमइ) 1/1 [(सयण)-(यल) 7/1] (सुत्त→सुत्तिय) भूकृ 1/I (सिविणय) 2/2 (पेच्छ) व 3/1 सक तब शुभमति जिनमति ने बिछौनों पर सूत्र से बने हुए स्वप्नों को देखती है (देखा) 11 सुरचित्तहरो [(सुर)-(चित)-(हर) 1/1 वि] देवताओं के चित्त को हरण करनेवाला पर्वत सिहरी पवरो णवकप्पयरू अमरिंदघरू (सिहरि) 1/1 (वर) 1/1 वि [(णव)-(कप्पयरु) 1/1] [(अमरिंद)-(घर) 1/1] श्रेष्ठ नया कल्पवृक्ष इन्द्र का घर (स्वर्ग) 2. पवरंबुरिणही पजलंतु सिही सुविराइयो [(पवर) + (अंबुणिहि)] [(पवर) वि- उत्तम-समुद्र (अंबुणिहि) 11] (पजल→पजलन्त) वकृ 1/1 चमकती हुई (सिहि) 1/1 अग्नि (सु-विराअ-सुविराइय-→सुविराइयअ) भूक अत्यन्त सुशोभित 1/1 'अ' स्वार्थिक (अवलोअ-→अवलोइय अवलोइयअ) भूकृ1/1 देखा गया 'अ' स्वार्थिक अवलोइयो 128 ] [ अपभ्रंश काव्य सौरम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001710
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1992
Total Pages358
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, L000, & L040
File Size13 MB
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