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पाठ-3
पउमचरिउ
सन्धि-27 27.14
घत्ता-(व्यक्तियों के द्वारा) (यदि) प्रहार किया गया (है), (तो) अधिक अच्छा (है), (यदि) तप का प्राचरण किया गया (है), (तो) (भी) अधिक अच्छा (है), (यदि) हालाहल विष (पिया गया है), (तो) (भी) अधिक अच्छा (है), मरना (मी) अधिक अच्छा (है),गहन वन में जाकर टिके हुए (होना)(भी) अधिक अच्छा(है), किन्तु पल भर (भी) मूर्ख-जन में ठहरे हुए (रहना) (अच्छा ) नहीं (है)।
27.15
[1] तब तीनों ही (राम, लक्ष्मण व सीता) (उस) जन (-समूह) में अतिपीड़ा को उत्पन्न करते हुए (और) इस (उपर्युक्त) प्रकार से कहते हुए [2] दिन के अन्तिम प्रहर में बाहर निकल गए (और) हाथी की तरह (वे) घने वन को चले गये। [3] ज्यों ही विशाल वन में प्रवेश करते हुए (वे) (आगे बढ़े), त्यों ही (उनके द्वारा) बरगद-महावृक्ष देखा गया । [4] (वह वृक्ष ऐसा था) मानो शिक्षक के रूप को धारण करके पक्षियों को सुन्दर स्वर व अक्षर पढ़ाता हो । [5] कौए नए कोमल पत्तों (वाली टहनी) पर (बैठे हुए) क-क्का, क-क्का बोलते थे (और) बाउलि पक्षी कि-क्की, कि-क्की कहते थे। [6] जलमुर्गे कु-क्कू, क-क्कू कहते थे, और भी मोर के-क्कई, के-कई बोलते थे। [7] कोयले को-क्कऊ, को-कऊ बोलती थीं (तथा) पपीहे कंका, कंका बोलते थे । [8] (इस तरह से) वह श्रेष्ठ वृक्ष फल-पत्तों वाला था (और) गुरु गणधर के समान अक्षरों का भण्डार (था)।
घत्ता-असुरों का नाश करनेवाले दशरथ के पुत्र, राम-लक्ष्मण द्वारा (वन में) प्रवेश करते ही सिर को नमाकर (बरगद का) वृक्ष मुनि की तरह (नमन किया गया) और (उसकी) परिक्रमा करके (उनके द्वारा) अपनी भुजाओं से (भी) अभिनन्दन किया गया।
सन्धि-28
ज्यों ही (दशरथ -पुत्र) राम सीता (और) लक्ष्मण के साथ (उस) श्रेष्ठ वृक्ष के नीचे के भाग में बैठे, त्योंही सुकवि के काव्य की भाँति बादलों के सघन-समूह आकाश के यौगन में (चारों ओर) फैल गए ।
अपभ्रंश कान्य सौरभ ]
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