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किज्जइ काई
वढ
तण उष्परि
अणु राउ
15. जसु
मणि
ཡོ བྷཱ བྷཱ ཝ ཟླ
करंतु
सो
मुि
पावइ
सुक्खु
रण
वि
सयलई
सत्य
मुरगंतु
16. बोहिविवज्जिउ
जीव
तुहं
विवरिउ
तच्च
मुहि
कम्मविणिम्मिय
भावडा
ते
श्रप्पाण
भरणे हि
17. ग वि
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
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( किज्जइ ) व कर्म 3 / 1 सक अनि
अव्यय
( वढ ) 8/1
( तणु) 6 / 1
अव्यय
( अणुराअ ) 1/1
(ज) 6/1 (मण) 7/1
(साग) 1 / 1
अव्यय
( विष्फुर ) व 3 / 1 अक (कम्म) 6/2 ( हेउ) 2/2
( कर करंत) वकृ 1 / 1
(त) 1 / 1 सवि
(for) 1/1
(पाव) व 3 / 1 सक
( सुक्ख ) 2 / 1
अव्यय
अव्यय
(सयल) 2 / 2 वि
( सत्थ) 2/2
(मुणत ) व 1 / 1
[ ( बोहि) - (विवज्ज विवज्जिअ ) भूकृ 8 /1]
(जीव ) 8 / 1
( तुम्ह ) 1 / 1 स
( विवरिअ ) 2 / 1 वि
( तच्च) 2 / 1
( मुण) व 2 / 1 सक
[ ( कम्म ) - ( विणिम्म ( भाव + अड) 2 / 2 'अड' स्वार्थिक
(त) 2/2 सवि
( अप्पाण ) 6 / 1
( भरण) व 2 / 1 सक
अव्यय
अव्यय
की जाती है
क्यों
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हे मूर्ख
शरीर के
ऊपर
आसक्ति
जिसके
हृदय में
ज्ञान
नहीं
फूटता है
कर्मों के कारणों को
करता हुआ
वह
मुनि
पाता है
सुख
नहीं
भी
सभी
शास्त्रों को
जानते हुए
असत्य
तत्त्व को
मानता है
विरिणम्मिअ) भूकृ 2 / 2] कर्मों से रचित
चित्तवृत्तियों को
श्राध्यात्मिक ज्ञान से रहित
(के बिना)
हे जीव
त
उन
स्वयं की समझता है
न
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