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________________ 6. णिच्चु रिणरंजणु पारगमउ परमाणंद-सहाउ नित्य निरंजन ज्ञानमय परमानन्द स्वभाव जिसने एहज (णिच्च) 1/1 वि (णिरंजरण) 1/1 वि (णाणमअ) 1/1 वि [(परम)+ (आणंद)+ (सहाउ)] [(परम) वि-(आणंद)-(सहाअ) 1/1] (ज) 1/1 सवि (एहअ) 2/1 वि 'अ' स्वार्थिक (त) 1/1 सवि (संत) भूक 1/1 अनि (सिन) 1/1 वि (स)6/1 स (मुण+इज्ज+हि) विधि 2/1 सक (माअ) 2/1 ऐसो सा संतु सिउ तासु मुणिज्जहि भाउ सन्तुष्ट हुआ मंगलयुक्त उसकी समझ अवस्था को 7. जो रिणय-भाउ परिहर जो पर-भाउ निज स्वभाव को नहीं छोड़ता है जो पर स्वभाव को नहीं ग्रहण करता है जानता है सकल को लेड (ज) 1/1 सवि [(णिय) वि-(भाअ) 2/1] अव्यय (परिहर) व 3/1 सक (ज) 1/1 सवि [(पर) वि-(भाअ) 2/1] अव्यय (ले) ब 3/1 सक (जाण) व 3/1 सक (सयल) 2/1 वि अव्यय (णिच्च) 1/1 वि (पर) 1/1 वि (त) 1/1 सवि (सिअ) 1/1 वि (संत) भूकृ 1/1 अनि (हव) व 3/1 अक जागइ सयलु वि णिच्चु पर नित्य सर्वोच्च सो सिउ मंगलयुक्त सन्तुष्ट हुमा बनता है (बना है) 8. जासु जिसका (ज)6/1 स अव्यय (वण्ण) 1/1 अव्यय वन्न 1. विधि अर्थ के मध्यम पुरुष के एकवचन में 'इज्जहि' प्रत्यय वैकल्पिक रूप से प्राप्त होता है (हे. प्रा. व्या. 3-175)। 176 1 [ अपभ्रंश काव्य सौरम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001710
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1992
Total Pages358
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, L000, & L040
File Size13 MB
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