Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 01
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रियदर्शिनी टीका अ० १ गा० १३ अविनीतविनीतशिप्याचरणम्
टीका'अपपासवा' इत्यादि-अनाश्रवाः अनाज्ञाकारिणः, उन्तृङ्खलत्वात् , स्थूलपचसा अरिचारितभाषिणः, अभिमानित्वात् , कुशीला: कुत्सिताचारवन्तः दुष्टस्वभावा उभयलोकभयरहितलादित्यर्थः । शिष्याः मृदुमपिन्कोमलहृदयमपि गुरु, चण्ड-सफोप प्रकुर्वन्ति । पूर्वार्धनाविनीतशिष्याचरण प्रदर्शितम् ।। का आराधन करता हुआ स्व और पर का कल्याण करनेवाला होता है ॥१२॥
फिर भी सूत्रकार अविनीत एच विनीत के स्वरूप को कहते हैं'अणासवा०' इत्यादि।
अन्वयार्थ-(अणासवा-अनाश्रवाः) अविनीत होने से आजानुसार नहीं चलने वाले (यूलवया-स्थूलवचसः) अभिमानी होने से विना विचारे घोलनेवाले, (कुसीला-कुशीलाः) इहलोक एव परलोक के भय से रहित होने के कारण दुष्ट स्वभाववाले ऐसे (सीसा-शिप्याः) शिष्य (मिउपि-मृदुमपि) कोमल हृदयवालेगुरु को भी (चड पकरतिचडं प्रकुर्वन्ति) कोपयुक्त करते ह । एच जो शिष्य (चित्ताणुया-चित्तानुगा) आचार्य महाराजकी आराधना तप एव सयम की हेतु होती है ऐसा जानकर आचार्य महाराज की मनोवृत्तिका अनुसरण करनेवाले होते है अर्थात् उनके आज्ञा के आराधक होते हैं, तया (दक्खोक्वेयादाक्ष्योपपेताः) गुरु महाराज की सुख शाता के अभिलापी होने से ફરકાવી આ પ્રકારે મુશિષ્ય પણ ગુરૂ મહારાજની આજ્ઞાનું આરાધન કરતા પિતાનું અને બીજાનું કલ્યાણ કરવાવાળા હોય છે ૧રા
સૂત્રકાર વધુમા અવિનીત એને વિનિતના સ્વરૂપને કહે છે માણવા ઈત્યાદિ
मन्वयार्थ-अणासवा-अनाश्रवा विनीत मनवाथी आज्ञानुसार नयास पास सुलवया-यूल पचस अलिमानी डावाथी प२ वियायु मोसपाया कुसीला-कुशीला सामने ५२उन लयथी २डित पाना - हुर સ્વભાવવાળા એવા શિષ્ય કોમળ હૃદયવાળા ગુરુને પણ કેપ સુક્ત કરે છે
या 2 सीसा-शिष्या शिष्य मिउपि-मृदुमपि। उभयवाणा शुरुने ५५ चड पकरति-घड प्रकुर्वन्ति ५ युत उरै छ माया महारानी मास ધન તપ અને સયમના હેતુથી હાય છે એવું જાણી આચાર્ય મહારાજની મનવૃત્તિનું અનુસરણ કરવાવાળા હોય છે, અર્થાત્ એમની આજ્ઞાના આગધડ डाय तथा दक्सोववेया-दास्योपपेता गुरु महारानी सुमातान! मलिनापी
उ-११