Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 01
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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उत्तराययो छाया-ततः स्पृष्ट पिपासया, जुगुप्सी लज्जासयतः ।
शीतोदक न सेवेत विकृतस्य एपणा चरेत् ।। ४ ।। टीका-तओ पुट्ठो' इत्यादि ।
ततः क्षुधापरीपहानन्तर, पिपासपा-कृपया, स्पृष्टः व्याप्तः सन् , जुगुप्सी -जुगुप्सक. अनाचारविरत इत्यर्थ तथा-लज्जासयत:-लज्मायो सयमे सम्यग् यत्नवानित्यर्थः । साधुः शीतोदर-सचित्त जल 'न सेवेत 'न व्यापणुयात् किंतु विकृतस्य-यवतण्डलद्राक्षादिधावनोत्काल्नादिना वर्णगन्धरसस्पर्शेरन्यथाभाव प्राप्तस्य मासुकस्य जलस्य, प्रासुफजल लेकशितिधि भवतीत्याचाराद्गमूने द्वितीयश्रुतस्कन्धे नवमाध्ययने निगदितम्--
क्षुधापरीपह को सहन करने वाला मुनि को आहार की गवेषणा करते हुए पिपासा लगे, तथा अहार करने के बाद पिपासा लगे तोउसको सहन करना चाहिये, इस आशय से अय सूत्रकार पिपासापरीषह को कहते हैं-" तओ पुढो" इत्यादि।
(तओ-ततः) क्षुधापरीपह के अनन्तर (पिवासाए पुठो-पिपासयास्पृष्ट.) पिपासा से व्याप्त होने पर भी (दोगुच्छी-जुगुप्सी) अनाचारविरत तथा (लज्जसजए-लज्जासयत.) सयम की रक्षा करने मे प्रयत्न शील साधु (सीओदग न सेविज्जा-शीतोदक न सेवेत) सचित्त जल का सेवन नहीं करे । किन्तु (वियडम्सेसण चरे-विकृतस्य एपणा चरेत्) विकृत-यव, तण्डुल, एव द्राक्षा आदि के धोने से अथवा उनके उकालने से जिनके वर्ण, गध, रस तथा स्पर्श का परिवर्तन हो चुका है ऐसे प्रासुक जल की गवेषणा करे। तात्पर्य यह है कि पिपासा से पीडित होने
સુધા પરિષહ સહન કરનાર મુનિને આહાર કર્યા પછી તરસ લાગે તેને સહન ४२वी २ मा माशयथी सूत्रा२ पिपासा परिषड छ तओ पुट्ठो-त्याह
तओ-तत क्षुधा परिपडना मनन्तर पिवासाए पुटो-पिपासयास्पृष्ट तरसथा व्यात १। छमनायार विरत तथा दोगुच्छि-जुगुप्सी अनाया पिरत तथा लज्जासजए-लज्जासंयत सयभनी २क्षा ४२वामा प्रयत्नशीत साधु सीओदग न सेविज्ज-शीतोदक न सेवेत सथित्त मनु सेवन न ४२ (तु वियहस्सेसण चरे-विकृतस्य एपणा चरेत् विकृत (अथित्त)-११, यामा, द्राक्ष વગેરેના છેવાથી અથવા એને ઉકાળવાથી તેના વર્ણ, ગ ધ, રસ તથા સ્પર્શનું પરિવર્તન થઈ ચુકયુ છે એવા પ્રાસુક જળની ગવેષણ કરે તાત્પર્ય એ છે કે તસથી પીડાતા હોવા છતા પણ સાધુએ સચિત્ત ?