Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 01
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 927
________________ ७५० उत्तराभ्ययनको लम्मा सत्तः सारयुक्तः सन् आस्रवं निरु-पेत्यर्थः, रजःबद्ध वध्यमान च कर्मरूप रेणु, निर्धनोति-नितरा धुनोति-उपनयति, तदपनयनाच मोक्ष प्राप्नोतीत्यर्थ ॥११॥ ___मानुपत्वादेः पारनिफफलं कयितम् । इदानी मैहिकफ बोधयितुमाइधर्म का श्रवण कर उसमें श्रद्धा करता है-श्रद्वाशाली रोता है-वह (तवस्सी-तपस्वी) निदान आदि शल्य से रहित प्रशस्त तप का आरा. धक और (सवुडो-सवृतः) आस्रव का निरोध करने वाला जीव (वीरियं लद्ध) सयम मे वीर्योल्लास को धारण कर (रय निदणे-रजा निधुनोति) घद्ध अथवा वध्यमान कर्मरूप धूलिका अपनी आत्मासे विलकुल अलग कर देता है, अर्थात्-कर्मरजरहिन रोकर मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। भावार्थ तपसे दो काम रोते है-१ सवर और २ निर्जरा। ये दो ही तत्व मुक्ति के कारण हैं। जो आत्मा मनुष्यदेह को पाकर धर्म में रुचिशाली रोता हे वह तपस्वी बनकर निदान आदि शल्यरहित तप से आस्रव का निरोध कर सयम मे वीर्याल्लास की अधिकता से पद अथवा वन्यमान कर्मों का नाश करने वाला हो जाता है ।। ११॥ मनुष्यत्व आदि का पारविक फल कह दिया है। इस समय ऐहिक फल बतलाने के लिये यह गाथा कही जाती है-'सोही' इत्यादि। श्रधा ४२ छ,-श्रध्धापान मन छ, ते तवस्सी-तपस्वी निदान आह शल्यथी २डित प्रशस्त तपन मारा५४ भने सखुडो-सवृत मापन नि५ ४२॥ पाणी व वीरिय लधु-वीर्य लवा सयभमा दीदवास पा२१ ४१ रय निधुणे-रज निधुनोति मई (मघायुसा) मा मध्यमान (नवा બ ધાતા) કર્મરૂપ ધૂળને પિતાના આત્માથી બિલકુલ અલગ કરી દે છે અથત કમજ રહિત થઈને મોક્ષને પ્રાપ્ત કરી લે છે ભાવાર્થ-તપથી બે કાર્ય થાય છે એક સ વર અને બીજુ નિ જરા એ બે તત્વ જ મોક્ષનું કારણ છે જે આત્મા મનુષ્યદેહને પામીને ધર્મમાં રૂચીવાળે બને છે, તે તપસ્વી બની નિદાન આદિ શત્યરહિત તપથી આસવ નિધિ કરી સયમમાં પ્રવૃત્ત બનતા બધ અથવા બધ્યમાન કર્મોના નાશ કરી શકે છે કે ૧૧ મનુષ્યત્વ આદિના પરલોક સ બધિ ફળ વિશે કહેવામા આવ્યું છે આ સમયે એહિક (આ લેકના) ફળ બતાવવા માટે આ ગાથા કહેવામાં આવે छ, सोही-त्यादि

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