Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 01
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 930
________________ ७९३ प्रियदर्शिनी टोका अ० ३ गा० १४-१५ पुण्यकर्मावशेपे देवत्वप्राप्ति एव तदरे मोक्षप्राप्तिरूप फलमुक्त्वा कर्मागेपे सति परभवे तत्फलमाहमूलम्-विसालिसेहि सीलेहि, जक्खा उत्तर-उत्तरा। महासुका व दिप्पता, मन्नतो अपुर्णचव ॥१४॥ छाया-विसदृशैः गीले., यक्षाः उत्तरोत्तरा। महाशुक्ला इव दीप्यमानाः मन्यमाना अपुन च्यवम् ॥१४॥ टीका-'विसालिसेहि ' इत्यादि । __मुनय विसटी: अनुपमैः, अत्युत्कृष्टैरित्य, शीलैः-चारिनिनयरूपैः, यक्षाः-देवाः भूत्वा उत्तरोनराम्ययोत्तरप्रधानाः, महाशुक्लाः अत्युज्वलतयाऽति शुक्लवर्णाश्चन्द्रसूर्यादयः इस दिप्यमानाः प्रकाशमानाः, अपुन च्यव स्वात्मनस्तदन्यभवे पुनाच्युति मन्यमानाः, 'उइढ कप्पे चिट्ठति ' ऊर्च कल्पेषु तिष्ठन्ति, इत्यग्रिमगाथया सम्बन्धः ।। १४ ॥ आत्मा मिथ्यात्व आदि को अपनी आत्मा से पृथक कर सयम आदि की सरक्षण करता रहता है वह आत्मा धर्म के द्वारा ही इस पौद्गलिक शरीर का परिहार कर के मोक्षसुख को पा लेता है ॥ १३ ॥ इस प्रकार उसी भव में मोक्षप्राप्तिरूप फल कह कर अव सूत्रकार "यदि उस आत्माका कर्म अवशिष्ट हो तो परभव मे उसको किस फल की प्राप्ति होनी है?" यह बतलाते हैं-'विसालिसेहिं' इत्यादि । __ अन्वयार्थ-मुनिजन (विसालिसेहिं-विसदृशै.) अनुपम (सीलेहि-शीले) चारित्रविनयरूप शीलों द्वारा (जक्खा-यक्षाः) देव होकर (उत्तर उत्तराउत्तरोत्तरा.) आगे २ के भवों मे (महासुका व दिप्पता-महामुल्ला इव આત્મા મિથ્યાત્વ વિગેરેને પિતાના આત્માથી દૂર કરી સયમ વિગેરેનું જતન કરતે રહે છે તે આત્મા ધર્મ દ્વારા જ આ પૌગલિક શરીરને ત્યાગ કરી મોક્ષ સુખ પ્રાપ્ત કરવા ભાગ્યશાળી બને છે કે ૧૩ આ પ્રકારે એજ ભવમા મોક્ષ પ્રાપ્તિરૂપ ફળ કહીને હવે સૂવકાર “જે તે આત્માનું કર્મ બાકી હોય તે પરભવમાં તેને કેવા ફળની પ્રાપ્તિ થાય छे" से मताव छ विसाल्सेिहि-त्या मन्पयार्थ--भुलिकन विसालिसेहि-विसदृशै अनुपम सीलेहिं शीले यात्रिविनय ३५ शी ARI जक्खा-यक्षा देवय उत्तरा उत्तरा-उत्तरोत्तरा भाग ५२ थना। लवामा महासुका व दिप्पता-महासुक्ला इव दीप्यमाना मात Grqa qवशिष्ट उ १००

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