Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 01
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा २९ याचनापरीपहनये वनप्रियमुनिदृष्टान्त ४४९ शक्यः, नहि मुनिः कस्यापि गृहस्थस्य सम्पन्धीति भाषः। इति-अतो हेतोः, जगारासः गाईस्थ्यम् , श्रेयान् श्रेष्ठः, इति एतद् , भिक्षुः=मुनिन चिन्वयेव , स्तुि गृहपासो हि बहुसावद्ययुक्तस्तथा ज्ञानावरणीयाद्यष्टविधकर्मबन्धस्य कारणम् , स कथमपि श्रेयस्करो न भरतीति विचारयेत् । फिर सूत्रकार पूर्वोक्त अर्यको ही विशद करते है-'गोयरग्ग०'-इत्यादि। ___ अन्वयार्थ-(गोयरग्गपविट्ठस्स-गोचराग्रप्रविष्टस्य) ज्ञात अज्ञातकुलों में गोचरी के लिये प्रविष्ट हुए साधु का (पाणी-पाणिः) हाय (नो सुप्पसारए-नो सुमनायः) सुप्रसार्य नहीं है, क्योकि मुनि किसी गृहस्थ का सपघी नहीं है, इसलिये (अगारवासो सेओ-अगारवासः श्रेयान् ) इसकी अपेक्षा गृहस्थजीवन श्रेष्ठ है, ऐसा(भिक्खू न चिंतए-भिक्षुःन चिन्तयेत् ) भिक्षुको नहीं विचारना चाहिये, क्यों कि गृहवास बहुसावधयुक्त तथा ज्ञानावरणीय आदि अष्टविध कर्मों के बध का कारण है अतः वह किसी प्रकार श्रेयस्कर नहीं माना जा सकता है।
भावार्थ-गोचरी के लिये ज्ञात अज्ञात कुलों में गये हुए साधु को ऐसा नही विचार करना चाहिये कि यहा मैं किसके सामने हाथ फैलाऊँ-कोई मेरा सवधी तो है नही । सवधी से मागने में कोई शर्म की बात नहीं है । इससे तो अच्छा गृहवास ही है कि जिसमे हर एक से हर एक चीज मागने में कोई सकोच नही होता है । सायु का ऐसा
सूत्रा२ पूर्वाधत मनेरी समाये छ—'गोयरग्ग' त्यादि
अन्वयार्थ-गोयरगपविदुस्स-गोचराग्रप्रविष्टस्य ऐसा मगर माया पुजामा गायरी भाट नारा साधुन पाणी-पाणि डाय नो सुप्पसारए-नो सुम सार्य सुप्रसायनथी भ, भुनि हुन्थना समधी नथी तेथी अगारवासो सेओ-अगारवास श्रेयान् ते अपेक्षा गृहस्थ छन श्रेष्ठ छे सेवामा भिक्खू न चितए-भिक्षु न चिन्तयेत् भिक्षुगे सायो नये उभ, गडपासमहु सावध યુક્ત તથા જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ કર્મોના બે ધનુ કારણ છે આથી તે કોઈ પ્રકારે શ્રેયસ્કર માનવામા આવેલ નથી
ભાવાર્થ–ગોચરી માટે જાણતા કે અજાણ્યા કુળમાં જતા સાધુએ એ વિચાર ન કરવો જોઈએ કે, હુ ત્યા કોની સામે હાથ લા કરૂ ? કઈ મારો સબ ધી તે નથી સબ ધી પાસે માગવામાં કોઈ શરમની વાત નથી આથી તે ગૃહસ્થાશ્રમ સારે કે જેમાં એક બીજાથી ચીજ માગવામાં સકેચ થતું નથી
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