Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 01
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रियदर्शिनी टीका गा २३ विनीतशिष्याय वाचनादानम्
१३९ कृत्वा स्थितः सन् प्राञ्चलिपुट =ताभलि., सूत्रादिक पृच्छन् । यद्वा-कदाचिदपि =बहुश्रुतत्वेऽपि जासनगतः शग्यागतो वा न पृच्छेत् सूनादिकमित्यर्थः ।
'आसणगओ' इत्यादि।
अन्वयार्थ उत्तम शिष्य को, चाहिये कि वह (आसणगओ -आसनगतः) आसन पर भैठे २ अथवा (सेज्जागओ-शय्यागतः) सस्तारक पर बैठे २ या सोये २ (रोगादिक अवस्था को छोडकर) (कयाइवि-कदाचिदपि) कभी भी (न पुच्छिज्जा-न पृच्छेत्। गुरु महाराज से सूत्र का अर्थ अथवा उनकी कुशलता न पूछे । किन्तु (आगम्मुक्कुडओ सतो पजली उडो पुचिउजा-आगम्य उत्कुटुकः सन् प्राञ्जलिपुटः पृच्छेत्) उनके समीप आकर और उत्कुटुकासन-उकड आसनसे बैठकर दोनों हाथजोड फिर उनसे सूत्र आदि का अर्थ पूछे । शिष्य कितना ही बहुश्रुती क्यो न हो तो भी अपने गुरु से सूत्रार्थ की प्रच्छना अथवा सुख शाता की पृच्छना आसन पर वैठे २ या विस्तर पर लेटे २ नहीं करनी चाहिये । यद्यपि सूत्रार्थ की पृच्छना सशय होने पर ही की जाती है। बहुश्रुत होने पर भी सशय हो सकता है। अब ऐसी स्थिति मे शिष्य का धर्म है कि उस सशय की
आसणगओत्यादि
अन्वयार्थ-6त्तम शिष्यनी से १२०१ छत आसनगओ-आसनत भासन १५२ २४ 28t अथवा सेज्जागओ-शय्यागत शय्यामा : 28
सता सता (शाह अवश्याने छोडीन) कयाइवि-कदाचिदपि ४ ५५५ गुरु महारथी सूत्रना मथ मथवा ओमनी अशा न पुच्छिन्ना-न पृच्छेत न पछे ५२४ आगन्मुस्कुडुओ सतो पजलि उडो पुच्छिज्जा-आगम्य उत्कुटक सन् प्राञ्जलिपुट पृच्छेत् तेमाल मामे मापी मन Gटासनथी બેસી બને હાથ જોડી ત્યારપછી એમને સૂત્ર આદિના અર્થ પુછે અને સુખ શાતાના સમાચાર પુછે શિષ્ય ગમે તેવો બહુશ્રુત કેમ ન હોય તે પણ પિતાના ગુરુથી સૂત્રાર્થના અર્થ અથવા સુખશાતાના સમાચાર આસન પર બેઠા બેઠા અથવા તે પથારી પર સુતા સુતા ન પુછવા જોઈએ જે કે સૂત્રાર્થ આદિના અર્થ સ શય થવાથી જ પુછાય છે બહુશ્રુત હોવા છતા પણ સ શય થાય છે આથી આવી સ્થિતિમાં શિષ્યને ધર્મ છે કે, એ સ શયની નિવૃત્તિ માટે તે ગુરુની સમક્ષ જાય અને ખુબ વિનયની સાથે એ સશયની નિવૃત્તિ