Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 01
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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उत्तराभ्पयनसरे विनीताविनीतयोरुपदेशदाने यत् फल गुरोमाति तदाहमूलम्--रमए पडिए सांस, हय भेद व वाहंए ।
बाल सम्मइ सासतो, गलियस्स वै वाहए ॥३७॥ छाया--रमते पण्डितान् गासन, हय भद्रामिर वाहकः ।
पाल श्राम्यति शासन, गलिताथमिव वाहकः ॥ ३७॥ टीका-'रमए' इत्यादि-- ___ अनगुरुरिति कर्तृपद प्रकरणशाद्विजेयम् । पण्डितान-विनीतशिप्यान, शासन =शिक्षयन् गुरुः, रमते सफलमयत्नतया प्रसन्नो भवतीत्यर्थः । क इस ? भद्र-जात्य विनीत, हयम् अश्व वाहयन, साहका अश्वपाद इस, यथा नात्याश्य वाहयनश्ववाहा यद्वा- 'सुलप्टा दीक्षायोग्या कन्येति' इसी साधु की क्रिया मनोज्ञ है अथवा यह कन्या दिक्षा योग्य है।
भावार्थ-मुकृत आदि शब्दो को प्रयोग यदि साधु सासारिक कार्यों को लक्ष्य में रख कर करता है तो वह दोप का भागी होता है और इन्ही शब्दों का प्रयोग यदि वह धार्मिक कार्यों को लक्ष्य में रखकर करता है तो उसको कोई दोप नहीं लगता है ॥३६॥
विनीत और अविनीत शिष्य को उपदेश देने में गुरु महाराज कोजो फल प्राप्त होता है उसे इस गाथादारासूत्रकार करते हैं-'रमए' इत्यादि __अन्वयार्थ-गुरु महाराज (पडिरा-पडितान ) विनीत शिष्यो का (सास-शासत्) शिक्षा देते हुए (रमए-रमते) सफल प्रयत्नवाला होने से प्रसन्न होते है । जैसे-(भद्द हय व वाहए-भद्र य इव वाहक. ) सुलष्ठा दीक्षायोग्या कन्येति" ॥ साधुनी छिया भनाज्ञ छ अथवा मा न्या દિક્ષા ગ્ય છે
ભાવાર્થ–સુકૃત આદિ શબ્દોને પ્રયોગ જે સાધુ સંસારીક કાર્યોને લક્ષમાં રાખીને કરે છે તે તે દેષ ભાગી બને છે અને એ જ શબ્દોને પ્રવેગ જે તે ધાર્મિક કાર્યોને લક્ષમાં રાખીને કરે છે તે તેને કેઈ દેષ લાગતું નથી ૩૬
વિનીત અને અવિનીત શિષ્યને ઉપદેશ દેવામાં ગુરુ મહારાજને જે ફળ પ્રાપ્ત થાય છે એને આ ગાથા દ્વારા સૂત્રકાર કહે છે–ામgo ઈત્યાદિ
सन्क्याथ---गुरु महा। पडिए-पडितान विनीत शिष्याने सास-शासत् शिक्षा माता रमए-रमते सण प्रयल वाणा पाथी तेन। ६५२ प्रसन्न