Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 01
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
२३४
mum
उत्तराध्ययनसूत्रे टीका-नाइ उच्चे' इत्यादि___ सयतः साधुः, मामुक-पनकादिजतुरहित, निर्दोष-नकोटिरिशुद्ध, परकृत-परेण गृहस्थेन स्वार्थ कत न तु सा पर्थम्, पिण्डम् चतुर्विधमाहारम्, अत्युच्चे. गृहोपरिभूमिकादौ वशकाप्ठनिर्मितचर निश्रेणिकारोहण कृत्वा, न प्रतिगृहीयात् प्रतिगृह्णीयादित्यस्य नीचादावपि सम्बन्धः। नीचे-भविनीचे-भूमिगृहादौ वा न पविगृहीयात् तया-नासन्ने अत्यासन्ने, अतिसमीपे स्थितः सन् न प्रतिगृहीयात्, अतिदूरतः-अतिरे स्थितः सन् न प्रनिगृहीयात् ।
अत्र-'अत्युच्चे' इति-जारोहणेऽचरोहणे च स्वपरनिराधनासभव सूचयति । अव ग्रहणेपणा की विधि कहते है-'नाइउच्चे' इत्यादि
अन्वयार्थ-(सजए-सयतः) साधु (फासुय-प्रासुक) पनक-नीलन -फूलन-आदि जीवों से रहित-निर्दोप-नवकोटि से विशुद्ध तथा (परकड-परकृत) गृहस्थ द्वारा अपने निमित्त बनाये गये-न कि साधु के निमित्त बनाये गये, ऐसे (पिंड-पिण्ड) चतुर्विध आहार को (अइउच्चे न पडिगाहिज्ज-अत्युच्चे न प्रतिगहीयात्) घर के ऊपर की भूमि कादि पर वॉस अथवा काष्ठ की निसरणी से चढकर न लेवे इसी तरह जो आहार (नीए-नीचे) अत्यंत नीचे तलघर आदि मे हो उसको (न) नही लेवे । तया (नासपणे नाइदूरओ-नासन्ने नातिदूरतः) न अति नजदीक से लेवे और न अतिदूर से ही लेवे।।
'अत्युच्चे' इस पद द्वारा सूत्रकार यही सूचित करते हैं कि ऊँचे स्थान पर चढने एव उतर ने मे स्व और पर को विराधना होने की
वे डोषानी विधि सेवामा आवे छे नाइउच्चे-त्यादि
मन्वयाथ-सजए-सयत साधु, फोसुय-प्रासुक पनड, नासन, सन, २६ वाथी २हित निष-नोटरीथी विशुद्ध तथा पडकड परकृत गृहस्थन त्या પિતાના નિમિત્ત બનાવવામા આવેલ ન કે સાધુના નિમિત્ત બનાવેલ એવા વિંs વિષે यतुविध मारने आइउच्चे न पडिगाहिज्ज-अत्युच्चे न प्रतिगृह्णीयात् धरना ઉપરની ભૂમિ ઉપર વાસ કે લાકડાની નિસરણી ઉપર ચડીને ન લે આ રીતે २ माडार नीए-नीचे अत्यत नाय तर माहिभा डाय ते ५५ नवे तथा नासण्णे नाइदूरओ-नासन्ने नातिदूरत मती नथी न a तभ०४ અતિ દૂરથી પણ ન લે
अत्युच्चे मा ५४ वा। सूत्रा२ सयु सूचित ४३ छे , या स्थान ચડવા અગર ઉતારવામાં સ્વ અને પરની વિરાધના થવાની સંભાવના રહે છે,