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'प्रबोधिनी टीका प्र. पद १ सू. ३१ समेददर्शनार्य निरूपणम्
एकपदेनानेकानि पदानि ।
उदके इव तैलविन्दुः, स बीजरुचिरिति ज्ञातव्यः ॥७॥ स भवति अभिगमरुचिः, श्रुतज्ञानं यस्य अर्थतो दृष्टम् | एकादश अङ्गानि, प्रकीर्णकानि दृष्टिवाद ||८|| द्रव्यानां सर्वभावाः, सर्वप्रमाणैर्यस्य उपलब्धाः । सर्वैर्नयविधिभिः, विस्ताररुचिरिति ज्ञातव्यः ॥ ९ ॥ दर्शने ज्ञाने चरित्रे तपसि विनये सर्वसमितिगुप्तिषु । यः क्रियाभावरुचिः, स खलु क्रियारुचिर्नाम ॥ १०॥
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( एप येणेगाई पयाई जो) जो एक पद से अनेक पदों को (पसरई उसम्मत्तं सम्यक्त्व का प्रसार होता है (उदव्य तेल्लबिंदू) पानी में तेल की बूंद के समान ( सो बीयरुइ त्ति नायव्वो) उसे बीजरुचि जानना चाहिए (७)
(सो होइ अभिगमरुई) वह अभिगमरुचि है (सुयनाणं) श्रुतज्ञान (जस्स अत्यओ दिट्ठ) जिसने अर्थ से देखा है (एक्कारस अंगाई) ग्यारह अंग ( पन्नगा) प्रकीर्णक (दिट्टिवाओ य) और दृष्टिवाद (८)
(दव्वाण सव्वभावा) द्रव्यों के समस्त पर्याय (सव्व पमाणेहिं) मव प्रमाणों द्वारा (जस्स उवलद्वा) जिसे ज्ञात हैं (सव्वाहिं नयविही सब नय विधानों से ( वित्थारइत्ति नायव्वो) उसे विस्तार रुचि समझना चाहिए (९)
(दंसणनाणचरिते ) दर्शन, ज्ञान चरित्र में (तवविए) तप और विनय से (सव समितीसु) सब समितियों और गुप्तियों में (जो
( एगपणेगाइ पयाई जो मे पहथीने होने (पसरई उ सम्म ) सभ्यद्दत्वनो प्रचार थाय छे ( उदपव्य तेल्लबिंदु) पालीमा तेस जिन्हुनी समान (सो बीयरुइति नायव्वो) तेने मीन्नरुथि लगी सेवा लेहासे (७)
(सो होई अभिगमरुई) ते अभिगम ३थि छे (सुयनाणं) श्रुतज्ञान (जस्स अत्थओ दिट्ठ) ? मर्थ थी लेभेल छे (एक्कारस अंगाई) अगीयार अंग (पइणगा) अडीए (दिट्टिवाओय) भने दृष्टिवाह (c)
(दव्याण सव्वभावा) द्रव्योथी समस्त पर्याय (सव्यमाणे हि सर्व प्रमाणे द्वारा (जस्स उचलद्धा) ?ने ज्ञात छे (सव्वाहिं नय विहिहिं सर्वनय विधानार्थी (वित्थाररुइत्ति नायव्वो) तेने विस्तार ३थि समन्वी मेधसे (E)
(दंसणनाणचरित्ते) दर्शन ज्ञान यस्त्रिभां (तवविणए ) तप भने विनयथी (सव्वसमिइ गुत्तिसु) मधी समित्तियो भने गुतियामां (जो किरियाभावरुई) ने डिया