Book Title: Pragnapanasutram Part 01
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 949
________________ प्रमैयबोधिनी टीका द्वि. पद २ सू.२९ सिद्धानां स्थानादिकम् साकारानाकारं लक्षणमेतत्तु सिद्धानाम् ॥१६०॥ केवलज्ञानोपयुक्ताः, जानन्ति सर्वभावगुणभावान् पश्यन्ति सर्वतः खलु केवल दृष्टिभिरनन्ताभिः ॥१६१॥ नैवास्ति मनुष्याणाम् तत्सौख्यम्, नापि च सर्वदेवानाम् । यत् सिद्धानाम् सौख्यम् अव्यावाधामुपगतानाम् ॥१६२॥ सुरगणसुखं समस्तं सर्वाद्धा पिण्डितम् अनन्तगुणम् । नापि प्राप्नोति मुक्तिसुखम् अनन्तैवगैगितम् ॥१६३॥ सिद्धस्य सुख(उवउत्ता दसणे य नाणे य) ज्ञान और दर्शन में उपयुक्त-उपयोग लगाए हुए (सागारमणागार) साकार और अनाकार उपयोग (लक्खणमेयं तु सिद्धाणं) यह सिद्धों का लक्षण है ॥१६॥ __(केवलनाणुवउत्ता) केवल ज्ञान के उपयोग वाले (जाणता) जानते हए (सव्वभावगुण भावे) समस्त पदार्थों के गुण एवं पर्याय को (पासंता) देखते हुए (खलु) निश्चय (केवलदिविहिऽणंताहिं) अनन्त केवल दृष्टि से ॥१६१॥ (न वि अस्थि माणुसाणं तं सुखं) मनुष्यों को वह सुख नहीं है (न वि य सव्व देवाणं) न समस्त देवों को है (जं सिद्धाणं सुखं अव्वाबाह मुवगयाणं) अव्यावाध को प्रास सिद्धों को जो सुख है ॥१६२॥ - (सुरगणसुहं समत्तं) देव समूह के समस्त सुख को (सव्वद्वापिंडियं) सर्व काल से पिण्डित किया हुआ (अणंतगुणं) अनन्तगुण (न चि पावइ मुत्ति सुहं) मुक्ति सुख को नहीं पा सकता-सुक्तिसुख की बराबरी नहीं कर सकता (गंताहिं वग्गवग्गूहि) अनन्त वर्ग वर्गों से भी ॥१६॥ 'दसणे य जाणेय) ज्ञान मन. ४शनमा उपयुत उपयो! सावता ५४॥ (सागार मणागारं) सा४२ मने नि२।४।२ उपयोग (लक्खण मेयं तु सिद्धाणं) मा सिद्धान। લક્ષણ છે કે ૧૬૦ છે. । (केवलनाणुवउत्ता) 34ण ज्ञानना उपयोगवा (जाणंता) शुत छतi (सव्वभाव गुणभावे) समस्त पहा ना गुर तम पर्यायनी (पासंता) ने २९सा (खलु) निश्चय (केवलदिविहिऽणतेहिं) मन त उस ष्टया ॥ १६१ ॥ ' (नवि अत्यि माणुसोणं तं सुखं) माणसाने ते सुप नथी हेतु (न वि य सव्वदेवाणं) समस्त देवाने ५ नथी (जं सिद्धाणं सुखं अव्वाबाहमुवगयाणं) मच्या प्रात ४२८ सिहोने रे सुप छ ॥ १६२ ॥ (सुरगणसुहं समत्तं) हेव समूडना समस्त सुमने (सम्बद्धापिडियं) सक थी त्रित ४२खा (अणंतगुण) मनन्त गए। (न वि पायइमुत्तिसुह) भुति अपने नथी मेवी शत। मुति सुमनी परामरी नथी ४२० शता (णंताहिं वग्गवग्गूहिं) मनत वा वर्गाथी ५ ॥ १६३ ॥

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