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प्रज्ञापनासूत्रे
रत्नः अष्टैव चाङ्गुलानि साधिकानि । एषा खलु सिद्धानां जघन्यावगाहना भणिता ॥ १५६ ॥ अवगाहनाः सिद्धानां भवत्रिभागेन भवन्ति परिहीणाः । संस्थान मनित्थंस्थं जरामरणविप्रमुक्तानाम् ॥ १५७॥ यत्र च एकः सिद्धस्तत्र अनन्ता भक्षयविमुक्ताः । अन्योन्य समवगाढाः स्पृष्टाः सर्वेऽपि लोकान्ते || १५८ ॥ स्पृशत्यनन्तान् सिद्धान् सर्वप्रदेशै नियमतः सिद्धाः । तेऽपि च असंख्येयगुणा देशप्रदेशैश्च ये स्पृष्टाः ॥ १५९ ॥ अशरीराः जीवघनाः उपयुक्ताः दर्शने च ज्ञाने च । ( जहन्न ओगाहणा भणिया) जघन्य अवगाहना कही है ॥ १५६ |
( ओगाहणाइ सिद्धा भवत्तिभागेण होंति परिहीणा) सिद्धों की अवगाहना चरम शरीर से त्रिभाग कम होती है (संठाणं) संस्थान ( अणित्थंथं) अनियत प्रकार का ( जरामरणविपमुक्काणं) जरा और मरण से रहितों का ॥१५७॥
( जत्थ य एगो सिद्धो) जहां एक सिद्ध है (तत्थ अनंता भवक्खय विमुक्का ) वहां भवक्षय से मुक्त अनन्त जीव होते हैं (अन्नोनसमोगाढा) परस्पर में अवगाहना वाले ( पुट्ठा सच्चे वि लोगंते) सभी लोकान्त से स्पष्ट होते हैं ॥ १५८ ॥
(फुसइ) स्पर्श करता है (अनंते सिद्धे) अनन्त सिद्धों की (सव्व एसेहिं) समस्त प्रदेशों से (नियमसो) नियम से (सिद्धा) सिद्ध (ते वि य असंखिज्जगुणा ) वे सिद्ध असंख्यातगुणा हैं (देसपएसेहिं जे पुट्ठा) जो देश और प्रदेशों से दृष्ट हैं ॥ १५९ ॥
( असरीरा) शरीर से रहित (जीवघणा) सघन जीव प्रदेश वाले
( ओगाहणाइ सिद्धा भवत्ति भागेण हो ति परिहीणा) सिद्धोनी मवगाहुना थरभ शरीरथी भणु लाग गोछी होय छे (संठाणं) संस्थान (अणित्थंथं) अनियत प्रारना ( जरामरणविपमुक्काणं) ४२ भरथी रहिताना ॥ १५७ ॥ ( जत्थ य एगो सिद्धो ) नयां मे सिद्ध छे ( तत्थ अनंता भवक्खय विमुक्का ) त्यां लक्ष्यथी भुक्त अनन्त लव होय छे (अन्नोन्न समोगाढा) परस्परमां अवगाहुनावाणा (पुट्ठा सब्वे वि लोगते) ते मघा दोअन्तथी स्पृष्ट થાય છે ! ૧૫૮ ॥
(फुसइ) स्पर्श करे छे (अणंते सिद्धे) अनन्त सिद्धोना (सव्वपएसेहिं ) समस्त प्रदेशोथी (नियमसो) नियमथी (सिद्ध) सिद्ध (ते वि य असंखिज्ज गुणा ) ते सिद्धो असंख्यात गणा छे (दस पएसेहि जे पुट्ठा) ने देश भने अशोथ સ્પષ્ટ છે ॥ ૧૫૯ ॥
( असरीरा ) शरीर रडित ( जीव घणा ) सघन लव महेशवाणा ( उवजन्ता