Book Title: Pragnapanasutram Part 01
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 911
________________ प्रमेयवोधिनी टीका द्वि. पद २ सू.२७ ब्रह्मलोकादिदेवानां स्थानादिकम् ९५१ सामानिकसहस्राणाम्, स्वासां स्वासास् आत्मरक्षकदेवसाहस्त्रीणाम्, स्वेषां स्वेपां लोकपालानाम्, स्वेपां स्वेषाम् अनीकानास्, स्वेपां स्वेपाम् अनीकाधिपतीनाम् आधिपत्यम् पौरपत्यम्, स्वामित्वम्, भर्तु त्वम्, महत्तरकत्वम् आज्ञेश्वरसेनापत्यम् कारयन्तः पालयन्तो महताऽहतनाटयगीतवादिततन्त्रीतलतालत्रुटितघनमृदङ्गपटुप्रवादितरवेण दिव्यान् भोगभोगान् भुञ्जानाः विहरन्ति-तिष्ठन्ति, 'पाणए इत्थ देविंदे देवराया' प्राणतः अत्र-आनतप्राणतकल्पयोः, देवेन्द्रो देवराजः 'परिवसइ' परिवसति, 'जहा सणंकुमारे' यथा सनत्कुमारो देवेन्द्रो देवराजः प्रतिपादितस्तथा प्रतिपादनीयः, किन्तु 'नवरं' नवरम्-सनत्कुमारापेक्षया विशेषस्तु 'चउण्हं विमाणावाससयाणं' चतुर्णी विमानावासशतानाम् 'वीसाए सामाणियसाहस्सीणं' विशतेः सामानिकसाहस्रीणाम् 'असीईए आयरक्खदेवसाहस्सीणं' अशीते: आत्मरक्षकदेवसाहस्रीणाम् 'अन्नेसिं च बहूणं जाव विहरइ' अन्येषां च वहनाम् यावद-आनतप्राणतदेवानाम् आधिपत्यं पौरपत्यम् कुर्वन् पालयन् महताऽहतनाट्यगीतवादितरवेण दिव्यान् भोगभोगान् भुञ्जानो विहरतितिष्ठति, अथ पर्याप्तापर्याप्तकारणाच्युत देवानां स्थानादिकं प्ररूपयितुमाह-'कहि इन आनत और प्राणत कल्पों में प्राणत नामक देवेन्द्र देवराज है। उसका वर्णन सनत्कुमारेन्द्र के समान समझना चाहिए, किन्तु विशेषता यह है कि प्राणतेन्द्र चार सौ विमानों का, वीस हजार सामानिक देवों का, अस्सी हजार आत्मरक्षक देवों का तथा अन्य वहत-से आनत-प्राणत कल्मों के देवों का अधिपतिख, अग्रेसरत्व करता हुआ, उनका पालन करता हुआ नाटक, संगीत, और कुशल वादकों द्वारा वादित वीणा, तल, ताल, त्रुटित, मृदंग आदि वाद्यों की निरन्तर होने वाली ध्वनि के साथ दिव्य भोग्य भोगों को भोगता रहता है। __ अब पर्याप्त-अपर्याप्त आरण-अच्युत देवों के स्थानादि की प्ररूपणा की जाती है આ આનત અને પ્રાણત કલ્પમાં પ્રાણી નામના દેવેન્દ્ર દેવરાજ છે. તેમનું વર્ણન સનકુમારેન્દ્રના સમાન સમજવું જોઈએ, પરંતુ વિશેષતા આ છે કે પ્રાણતેન્દ્ર ચાર વિમાનના વીસ હજાર સામાનિક દેના એંસી હજાર આત્મરક્ષક દેવના તથા અન્ય ઘણુ બધા આનત પ્રાણુત કલ્પના દેવોનું અધિ પતિત્વ, અગ્રેસરત્વ, કરતા થકા પાલન કરતા કરતા નાટક, સંગીત, અને કુશલ વાદકો દ્વારા વાદિત વીણ તલ, તાલ, ત્રુટિત મૃદ ગ આદિ વાદ્યોના નિરન્તર થનારા વિનિની સાથે દિવ્ય ભેગ્યભેગેને ભગવતા રહે છે. હવે પર્યાપ્તઅપર્યાપ્ત આરણ-અર્ચ્યુત દેના સ્થાનાદિની પ્રરૂપણ કરાય છે

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