________________
प्रास्ताविक
२७.
कल्प का संक्षिप्त वर्णन है। पाँच प्रकार के कल्प के क्रमशः छः, सात, दस, बीस और बयालीस भेद हैं। प्रथम कल्प-मनुजजीवकल्प छः प्रकार का है : प्रव्राजन, मुण्डन, शिक्षण, उपस्थ, भोग और संवसन । जाति, कुल, रूप और विनयसंपन्न व्यक्ति ही प्रव्रज्या के योग्य है। निम्नोक्त बीस प्रकार के व्यक्ति प्रव्रज्या के अयोग्य हैं : १. बाल, २. वृद्ध, ३. नपुंसक, ४. जड, ५. क्लीब, ६. रोगी, ७. स्तेन, ८. राजापकारी, ९. उन्मत्त, १०. अदर्शी, ११. दास, १२. दुष्ट, १३. मूढ, १४. अज्ञानी, १५ जुंगित, १६. भयभीत, १७. पलायित, १८. निष्कासित, १९. गर्भिणी और २०. बालवत्सा स्त्री। आगे क्षेत्रकल्प की चर्चा करते हुए आचार्य ने साढ़े पच्चीस देशों को आर्यक्षेत्र बताया है जिनमें साधु विचर सकते हैं । इन आर्य जनपदों एवं उनकी राजधानियों के नाम इस प्रकार हैं : १. मगध
और राजगृह, २. अंग और चम्पा, ३. वंग और ताम्रलिप्ति, ४. कलिंग और कांचनपुर, ५. काशी और वाराणसो, ६. कोशल और साकेत, ७. कुरु और गजपुर, ८. कुशावर्त और सौरिक, ९. पांचाल और काम्पिल्य, १०. जंगल और अहिच्छत्रा, ११. सुराष्ट्र और द्वारवतो, १२. विदेह और मिथिला, १३. वत्स और कौशांबी, १४. शांडिल्य और नंदोपुर, १५. मलय और भदिलपुर, १६. वत्स और वैराटपुर, १७. वरण और अच्छापुरी, १८. दशार्ण और मृत्तिकावती, १९. चेदि और शौक्तिकावती, २०. सिंधु और वीतभय, २१. सौवीर और मथुरा, २२. सूरसेन और पापा, २३. भंग और सामपुरिवट्ट, २४. कुणाल और श्रावस्ती, २५. लाट और कोटिवर्ष २५३. केकया और श्वेतांबिका। द्वितीय कल्प के सात भेद हैं : स्थितकल्प, अस्थितकल्प, जिनकल्प, स्थविरकल्प, लिंगकल्प, उपधिकल्प और संभोगकल्प । तृतीयकल्प के दस भेद हैं : कल्प, प्रकल्प, विकल्प, संकल्प, उपकल्प, अनुकल्प, उत्कल्प, अकल्प, दुष्कल्प और सुकल्प । चतुर्थ कल्प के अन्तर्गत नामकल्प, स्थापनाकल्प, द्रव्यकल्प, क्षेत्रकल्प, कालकल्प, दर्शनकल्प, श्रुतकल्प, अध्ययन-- कल्प, चारित्रकल्प आदि बीस प्रकार के कल्पों का समावेश है। पंचम कल्प के द्रव्य, भाव, तदुभय, करण, विरमण, सदाधार, निर्वेश, अंतर, नयांतर, स्थित, अस्थित, स्थान आदि दृष्टिकोणों से बयालिस भेद किये गये हैं। चूणियाँ:
जैन आगमी की प्राकृत अथवा संस्कृतमिश्रित प्राकृत व्याख्याएँ चूणियाँ कहलाती हैं। इस प्रकार को कुछ चूणियाँ आगमेतर साहित्य पर भी हैं। जैन आचार्यों ने निम्नोक्त आगमों पर चूणियाँ लिखी हैं : १. आचाराग, २. सूत्रकृतांग, ३. व्याख्याप्रज्ञप्ति, ( भगवती), ४. जीवाभिगम, ५. निशीथ, ६. महानिशीथ, ७. व्यवहार, ८. दशाश्रुतस्कन्ध, ९. बृहत्कल्प, १०. पंचकल्प, ११. ओघ--
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org