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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास अपना गुरु बना सकता है। दीक्षा ग्रहण करने वाले के गुण-दोषों का विवेचन करते हुए आचार्य ने बताया है कि कुछ लोग अपने देश-स्वभाव से ही अनेक दोषों से युक्त होते हैं। आन्ध्र में उत्पन्न हुआ हो और अक्रूर हो, महाराष्ट्र में पैदा हुआ हो और अवाचाल हो, कोशल में पैदा हुआ हो और अदुष्ट हो-ऐसा सौ में से एक भी मिलना दुर्लभ है । अष्टम उद्देश की व्याख्या में शयनादि के निमित्त सामग्री जुटाने एवं वापस लौटाने की विधि बताई गई है तथा आहार की मर्यादा पर प्रकाश डाला गया है। कुक्कुटी के अण्डे के बराबर के आठ कौर खाने वाला साधु अल्पाहारी कहलाता है । इसी प्रकार बारह, सोलह, चौबीस, इकतीस और बत्तीस ग्रास ग्रहण करने वाले साधु क्रमशः अपार्धाहारी, अर्धाहारी, प्राप्तावमौदर्य, किञ्चिदवमौदर्य और प्रमाणाहारी कहलाते हैं। नवम उद्देश की व्याख्या में भाष्यकार ने शय्यातर अर्थात् सागारिक के ज्ञातिक, स्वजन, मित्र आदि आगंतुक लोगों से सम्बन्धित आहार के ग्रहण-अ ग्रहण के विवेक पर प्रकाश डालते हुए निर्ग्रन्थों की विविध प्रतिमाओं का स्वरूप बताया है । दशम उद्देश से सम्बन्धित भाष्य में यवमध्यप्रतिमा और वज्रमध्यप्रतिमा का विशेष विवेचन है । साथ ही पाँच प्रकार के व्यवहार, बालदीक्षा की विधि, दस प्रकार की सेवा-वैयावृत्य आदि का भी व्याख्यान किया गया है । ओघनियुक्ति-भाष्य : ____ ओघनियुक्ति-लघुभाष्य में ओघ, पिण्ड, व्रत, श्रमणधर्म, संयम, वैयावृत्य, गुप्ति, तप, समिति, भावना, प्रतिमा, इन्द्रियनिरोध, प्रतिलेखना, अभिग्रह, अनुयोग, कायोत्सर्ग, औपघातिक, उपकरण आदि विषयों का संक्षिप्त व्याख्यान है । ओघनियुक्ति-बृहद्भाष्य में इन्हीं विषयों पर विशेष प्रकाश डाला गया है। पिण्डनियुक्ति-भाष्य :
इसमें पिण्ड, आधाकर्म, औद्देशिक, मिश्रजात, सूक्ष्मप्राभृतिका, विशोधि, अविशोधि आदि श्रमणधर्मसम्बन्धी विषयों का संक्षिप्त विवेचन है। पंचकल्प-महाभाष्य :
यह भाष्य पंचकल्पनियुक्ति के व्याख्यान के रूप में है । भाष्यकार ने नियुक्ति की प्रथम गाथा में प्रयुक्त ‘भद्रबाहु' पद का अर्थ 'सुन्दर बाहुओं से युक्त, किया है और बताया है कि अन्य भद्रबाहुओं से छेदसूत्रकार भद्रबाहु को पृथक् सिद्ध करने के लिए उनके नाम के साथ प्राचीन गोत्रीय, चरम सकलश्रुतज्ञानी और दशा-कल्प-व्यवहारप्रणेता विशेषण जोड़े गये हैं। प्रस्तुत भाष्य में पाँच प्रकार के
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