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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
राजा, युवराज,
और सर्वतः भेद से दो प्रकार का है । आवश्यकादि में हीनता, अधिकता, विपर्यय आदि करने वाला देशावसन्न है । समय पर संस्तारक आदि का प्रत्युपेक्षण न करते वाला सर्वावसन्न है । जो पार्श्वस्थ आदि का संसर्ग प्राप्त कर उन्हीं के समान हो जाता है वह संसक्त है । साधुओं के विहार की चर्चा करते हुए भाष्यकार ने एकाकी विहार का निषेध किया है तथा तत्सम्बन्धी दोषों का निरूपण किया है । इस प्रसंग पर एक वणिक् का दृष्टान्त देते हुए आचार्य ने राजा, वैद्य, धनिक, नियतिक और रूपयक्ष - ये पांच प्रकार धन और जीवन का नाश हुए बिना नहीं रहता । अथवा महत्तरक, अमात्य तथा कुमार से परिगृहित राज्य गुणविशाल होता है । अपनी उन्नति की कामना वाले व्यक्ति को इसी प्रकार के राज्य में रहना चाहिए । जो उभय योनि ( मातृपक्ष तथा पितृपक्ष ) से शुद्ध हैं, प्रजा से आय का केवल दशम भाग ग्रहण करता है, लोकाचार एवं नीतिशास्त्र में निपुण है वही वास्तव में राजा है, शेष राजाभास हैं । जो प्रातःकाल उठकर सर्वप्रथम शरीरशुद्धि आदि आवश्यक कार्यों से निवृत्त होता है एवं आस्थानिका में जाकर राज्य के सब कार्यों की विचारणा करता है वह युवराज है । जो गम्भीर है, मार्दवयुक्त है, कुशल है, जाति एवं विनयसम्पन्न है तथा युवराज के साथ सब कार्यों का प्रेक्षण करता है वह महत्तरक है । जो व्यवहारकुशल एवं नीतिसम्पन्न है तथा जनपद, राजधानी व राजा का हितचिन्तन करता है वह अमात्य है । जो दुर्दान्त लोगों का दमन
करता हुआ संग्रामनोति में अपनी कुशलता का परिचय देता है वह कुमार है । जो वैद्यकशास्त्र का पंडित है तथा माता-पिता आदि से सम्बन्धित रोगों को निर्मूल कर स्वास्थ्य प्रदान करता है वह वैद्य है । जिसके परम्परा से प्राप्त करोड़ों की सम्पत्ति हो वह धनिक है । जिसके यहाँ निम्नलिखित १७ प्रकार के धान्य के भाण्डार भरे हुए हों वह नियतिक है : १. शालि, २. यव, ३. कोद्रव, ३. व्रीहि, ५. रालक, ६ तिल, ७. मुद्ग, ८. माष, ९. चावल, १०. चणक, ११. तुवरी १२. मसुरक, १३. कुलत्थ, १४. गोधूम, १५. निष्पाव १६. अतसी, १७. सण । जो माढर और कौण्डिन्य की दण्डनीति में कुशल है, किसी से भी लंचा उत्कोच नहीं लेता तथा किसी प्रकार का पक्षपात नहीं करता वह रूपयक्ष है । रूपयक्ष का शब्दार्थ है मूर्तिमान् धर्मैकनिष्ठ देव । जिस प्रकार राजा आदि के अभाव में धन-जीवन की रक्षा असंभव है उसी प्रकार आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गीतार्थ के अभाव में चारित्रधर्म की रक्षा असंभव है । द्वितीय उद्देश की व्याख्या में द्वि, साधर्मिक, विहार आदि पदों का विवेचन है । विविध प्रकार के तपस्वियों एवं रोगियों की सेवा का विधान करते हुए भाष्यकार ने क्षिप्तचित्त तथा दीप्तचित्त साधुओं की सेवा करने की मनोवैज्ञानिक विधि बताई है । व्यक्ति क्षिप्तचित्त क्यों
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बताया है कि जहाँ
के
लोग न हों वहाँ
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