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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास में स्थित भिक्षुक का भक्तपानादि, विविध नदियों को पार करने की मर्यादाएँ, विविध ऋतुओं के लिए योग्य उपाश्रय । हस्तकम का स्वरूप बताते हुए भाष्यकार ने आठ प्रकार के हस्तकर्म का उल्लेख किया है : छेदन, भेदन, घर्षण, पेषण, अभिघात, स्नेह, काय और क्षार । मैथुन का स्वरूप बताते हुए आचार्य ने लिखा है कि मैथुनभाव रागादि से रहित नहीं होता अतः उसके लिए किसी प्रकार के अपवाद का विधान नहीं है। पंडक आदि की प्रव्रज्या का निषेध करते हुए आचार्य ने पंडक के सामान्यतया छः लक्षण बताये हैं : १. महिलास्वभाव, २. स्वरभेद, ३. वर्णभेद, ४. महन्मेढ़, ५. मृदुवाक्, ६. सशब्द-अफेनक मूत्र । इसी प्रसंग पर भाष्यकार ने एक हो जन्म में पुरुष, स्त्री और नपुंसकवेद का अनुभव करने वाले कपिल का दृष्टान्त भी दिया है । पंचम उद्देश की व्याख्या में निम्न विषयों का समावेश है : गच्छसम्बन्धी शास्त्र स्मरण और तद्विषयक व्याघात, क्लेशयुक्त चित्त से गच्छ में रहने अथवा स्वगच्छ को छोड़कर अन्य गच्छ में चले जाने से लगने वाले दोष और उनका प्रायश्चित्त, निःशंक तथा सशंक रात्रिभोजन, उद्गार-वमनादिविषयक दोष एवं प्रायश्चित्त, आहार-प्राप्ति के लिए प्रयत्न एवं यातनाएँ, निर्ग्रन्थीविषयक विशेष विधि-विधान । षष्ठ उद्देश के भाष्य में श्रमण-श्रमणियों से सम्बन्धित निम्न विषयों पर प्रकाश डाला गया है : निर्दोष वचनों का प्रयोग एवं अलीकादि वचनों का अप्रयोग, प्राणातिपात आदि से सम्बन्जित प्रायश्चित्तों के प्रस्तार-विविध प्रकार, कंटक आदि का उद्धरण, दुर्गम मार्ग का अनालम्बन, क्षिप्तचित्त निर्ग्रन्थी की समुचित चिकित्सा, साधुओं के परिमंथ अर्थात् व्याघात और उनका स्वरूप, विविध कल्पस्थितियाँ एवं उनका स्वरूप । भाष्य के अन्त में कल्पाध्ययन शास्त्र के अधिकारी की योग्यताओं का निरूपण है।
बृहत्कल्प-लघुभाष्य का जैन साहित्य के इतिहास में ही नहीं, सम्पूर्ण भारतीय साहित्य के इतिहास में भी एक महत्त्वपूर्ण स्थान है । इसमें भाष्यकार के समय की एवं अन्यकालीन भारतीय सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक एवं धार्मिक स्थिति पर प्रकाश डालने वाली सामग्री की प्रचुरता का दर्शन होता है। जैन साधुओं के लिए तो इसका व्यावहारिक महत्त्व है ही । बृहत्कल्प-बृहद्भाष्य : ___यह भाष्य अपूर्ण ही उपलब्ध है। उपलब्ध भाष्य में पीठिका एवं प्रारंभ के दो उद्देश पूर्ण है तथा तृतीय उद्देश अपूर्ण है । इसमें बृहत्कल्प-लघुभाष्य में प्रतिपादित विषयों का ही विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है। कहीं-कहीं गाथाओं में व्यतिक्रम दृष्टिगोचर होता है।
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