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प्रास्ताविक
वस्त्र धारण का
भिन्न एवं अभिन्न वस्त्र का संग्रह व उपयोग, अवग्रहानन्तक एवं अवग्रहपट्टक का उपयोग, निर्ग्रन्थी द्वारा वस्त्रादिग्रहण, नवदीक्षित श्रमण श्रमणियों के लिए उपधि की मर्यादा, प्रथम वर्षाऋतु में उपधिग्रहण की विधि, वस्त्रविभाजन की निर्दोष विधि, अभ्युत्थान-वंदन आदि करने का विधान, किसी घर के अन्दर अथवा दो घरों के बीच सोने-बैठने का निषेध, शय्या - संस्तारक की - याचना एवं रक्षा, असुरक्षित स्थान का त्याग । भिन्न एवं अभिन्न वस्त्र का स्वरूप बताते हुए आचार्य ने वस्त्र फाड़ने से होने वाली हिंसा अहिंसा की चर्चा की हैं । इस चर्चा में निम्नोक्त बातों का विचार किया गया है : द्रव्यहिंसा और भावहिंसा का स्वरूप, हिंसा में रागादि की तीव्रता और तीव्र कर्मबंध, रागादि की मंदता और मंद कर्मबन्ध, हिंसक में ज्ञान और अज्ञान के कारण कर्मबन्ध का न्यूनाधिक्य, अधिकरण की विविधता से कर्मबन्ध का वैविध्य, हिंसक की देहादि की शक्ति के कारण कर्मबन्ध की विचित्रता । अवग्रहानन्तक और अवग्रहपट्टक के उपयोग की चर्चा करते हुए आचार्य ने इस बात का समर्थन किया है कि निर्ग्रन्थों के लिए इन दोनों का उपयोग वर्जित है जबकि निर्ग्रन्थियों के लिए उनका उपयोग अनिवार्य है । इस प्रसंग पर अपूर्ण * निषेध करते हुए भाष्यकार ने निर्ग्रन्थियों के अपहरण आदि की चर्चा की है । गर्भाधान की चर्चा करते हुए बताया गया है कि पुरुष-संसर्ग के अभाव में भी निम्नोक्त पांच कारणों में गर्भाधान हो सकता है । १. दुर्विकृत एवं दुर्निषण्ण स्त्री की योनि में पुरुषनिसृष्ट शुक्रपुद्गल किसी तरह प्रविष्ट हो जाए, २ . स्त्री स्वयं पुत्रकामना से उसे अपनी योनि में प्रविष्ट करे, ३. अन्य कोई उसे उसकी योनि में रख दे, ४. वस्त्र - संसर्ग से शुक्रपुद्गल स्त्री-योनि में प्रविष्ट हो जाए, ५. उदकाचमन से स्त्री के भीतर शुक्रपुद्गल प्रविष्ट हो जाए । चतुर्थं उद्देश की व्याख्या में निम्नलिखित विषयों का विवेचन किया गया है : हस्तकर्म, मैथुन और रात्रिभोजन के लिए अनुद्घातिक अर्थात् गुरु प्रायश्चित्त, दुष्ट, प्रमत्त और अन्योन्यकारक के लिए पारांचिक प्रायश्चित्त, साधर्मिक- स्तैन्य, अन्यधार्मिकस्तन्य एवं हस्ताताल के लिए अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त, पंडक, क्लीब और वातिक के लिए प्रव्रज्या का निषेध, अविनोत, विकृतिप्रतिबद्ध और अव्यवशमितकषाय के लिए वाचना का वर्जन, दुष्ट, मूढ एवं व्युद्ग्राहित के लिए उपदेश का निषेध, रुग्ण निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों की यतनापूर्वक सेवा-शुश्रूषा कालातिक्रान्त एवं क्षेत्रातिक्रान्त अशनादि की अकल्प्यता, अकल्प्य अशनादि का निर्दोष उपयोग एवं विसर्जन, अशनादिक की कल्प्यता और अकल्प्यता, गणान्तरोपसम्पदा का ग्रहण और उसकी यथोचित विधि, मृत्युप्राप्त भिक्षुक के शरीर को परिष्ठापना, भिक्षुक का गृहस्थ के साथ अधिकरण - झगड़ा और उसका व्यवशमन, परिहारतप
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