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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
दोनों ही करने के
।
श्रमण श्रमणियों के लिए
प्रश्न का उत्तर देते हुए भाष्यकार ने स्याद्वादी भाषा में लिखा है कि निष्पादक और निष्पन्न इन दो दृष्टियों से दोनों ही प्रधान हैं । स्थविरकल्प सूत्रार्थग्रहण आदि दृष्टियों से जिनकल्प का निष्पादक है, जबकि जिनकल्प ज्ञान-दर्शन- चारित्र आदि दृष्टियों से निष्पन्न है । इस प्रकार अवस्थाएँ महत्त्वपूर्ण एवं प्रधान हैं । इस वक्तव्य को विशेष स्पष्ट लिए आचार्य ने गुहासिंह, दो स्त्रियों और दो गोवर्गों के उदाहरण भी दिये हैं रात्रि अथवा विकाल में अध्वगमन का निषेध करते हुए भाष्यकार ने अध्व के दो भेद किये हैं : पंथ और मार्ग । जिसके बीच में ग्राम, नगर आदि कुछ भी न हों वह पन्थ है । जो ग्रामानुग्राम की परम्परा से युक्त हो वह मार्ग है । अपवादरूप से रात्रिगमन की छूट है किन्तु उसके लिए अध्वोपयोगी उपकरणों का संग्रह तथा योग्य सार्थ का सहयोग आवश्यक है । सार्थं पाँच प्रकार का है : १. भंडो, २, बहिलक, ३. भारवह, ४. औदरिक, ५. कार्पेटिक । इसी प्रकार आचार्य ने आठ प्रकार के सार्थवाहों और आठ प्रकार के आदियात्रिकों --सार्थव्यवस्थापकों का भी उल्लेख किया है । श्रमण श्रमणियों के विहार-योग्य क्षेत्र की चर्चा में बताया है कि उत्सर्गरूप से विहार के लिए आर्यक्षेत्र ही श्रेष्ठ है । आर्य पद का निम्नोक्त निक्षेपों से व्याख्यान किया गया है : १. नाम, २. स्थापना, ३ . द्रव्य, ४. क्षेत्र, ५ जाति, ६. कुल ७. कर्म, ८. भाषा, ९. शिल्प, १०. ज्ञान, ११. दर्शन, १२. चारित्र । आर्यजातियाँ छः प्रकार की हैं : १. अम्बष्ठ, २. कलिन्द, ३. वैदेह, ४ विदक, ५. हारित, ६. तन्तुण । आर्यकुल भी छ: प्रकार के हैं : १. उग्र, २. भोग, ३. राजन्य, ४. क्षत्रिय, ५. ज्ञात - कौरव, ६. इक्ष्वाकु । द्वितीय उद्देश के भाष्य में निम्नोक्त विषयों का व्याख्यान है : उपाश्रय सम्बन्धी दोष एवं यतनाएँ, सागरिक के त्याग की विधि, दूसरों के यहाँ से आई हुई भोजन सामग्रो के दान की विधि, सागरिक के भाग के पिण्ड का ग्रहण, विशिष्ट व्यक्यिों के निमित्त निर्मित भक्त, उपकरण आदि का अग्रहण, वस्त्रादि उपधि के परिभोग की विधि एवं मर्यांदा, रजोहरण ग्रहण की विधि । वस्त्रादि-उपधि के परिभोग की चर्चा में पांच प्रकार के वस्त्रों का स्वरूप बताया गया है : १. जांगिक, २. भांगिक, ३. सानक, ४. पोतक, ५. तिरीटपट्टक । रजोहरण - ग्रहण की चर्चा में पाँच प्रकार के रजोहरणों के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है : १. औणिक, २. औष्ट्रिक, ३. शनक, ४. वच्चकचिप्पक, ५ मुञ्ज चिप्पक । तृतोय उद्देश की व्याख्या में भाष्यकार ने निम्न बातों पर प्रकाश डाला है : निर्ग्रन्थों का निर्ग्रन्थियों के और निर्ग्रन्थियों का निर्ग्रन्थों के उपाश्रय में प्रवेश, निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों द्वारा सलोमादि चर्म का उपयोग, कृत्स्न एवं अकृत्स्न वस्त्र का संग्रह व उपयोग,
आहारादि के
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