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वस्तुतः प्राचीन काल से ही समर्थ धर्माचार्यों ने धर्म की प्रभावना के लिये श्रावक समुदाय को विशाल देव-प्रतिमाओं के निर्माण एवं उनके लिए भव्य मन्दिरों को बनवाने का उपदेश दिया है। उन्हीं समर्थ धर्मगुरुओं के कारण आज भारतवर्ष के विभिन्न प्रांतों में विशालकाय मन्दिरों के दर्शन सुगमता से हो जाते हैं । आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज ने पूर्ववर्ती दिगम्बर आचार्यों से प्रेरणा लेकर विशालकाय जिनालयों का निर्माण कराया है। उनके द्वारा स्थापित जिनालय आज तीर्थक्षेत्रों का रूप धारण कर चुके हैं। अयोध्या में स्थित भगवान् श्री ऋषभदेव जी का मन्दिर, चूलगिरि (जयपुर), शांतिगिरि(कोथली) इत्यादि उनकी रचनात्मक संकल्प शक्ति के प्रतीक हैं। (अ) अयोध्या का रचना-शिल्प
जैनधर्मानुयायियों का अयोध्या के प्रति गहरा अनुराग भाव है । अनादिकाल से इस क्षेत्र में २४ तीर्थंकरों का जन्म होता आया है और भविष्य में होता रहेगा । हुन्डावसर्पिणी के दोष के कारण इस काल में यहां केवल पाँच तीर्थकर भगवान् ऋषभदेव, श्री अजितनाथ, श्री अभिनन्दननाथ, श्री सुमतिनाथ और श्री अनन्तनाथ का जन्म हुआ। चक्रवर्ती भरत एवं सगर ने भी अयोध्या को अपनी राजधानी बनाया था। आचार्य गुणभद्र के अनुसार मघवा, सनत्कुमार और सुभौम चक्रवर्ती का जन्म भी यहीं हुआ था। राजा दशरथ एवं नारायण श्री रामचन्द्र जी भी यहीं पर राज्य करते थे।
आचार्य जिनसेन के अनुसार मरुदेवी और नाभिराज से अलंकत पवित्र स्थान में जब कल्पवृक्षों का अभाव हो गया तब वहां उनके पुण्य के द्वारा बार-बार बुलाये हुए इन्द्र की आज्ञा से अनेक उत्साही देवों ने स्वर्गपुरी के समान अयोध्या नगरी की रचना की। आद्य तीर्थंकर के जन्मस्थान के गौरव के अनुरूप अयोध्या नगरी का निर्माण एवं उसकी विशेषताओं का वर्णन आचार्य श्री जिनसेन ने 'आदि पुराण' के द्वादश पर्व में इस प्रकार किया है :
ताभ्यामलंकृते पुण्ये देशे कल्पांघ्रिपात्यये । तत्पुण्यमुहुराहूतः पुरुहूतः पुरी व्यधात् ।।६६॥ सुराः ससंभ्रमाः सद्य: पाक शासनशासनात् । तां पुरी परमानन्दाद् व्यधुः सुरपुरी निभाम् ।।७।। स्वर्गस्यैव प्रतिच्छन्दं भूलोकेऽस्मिन्निधित्सुभिः । विशेषरमणीयैव निर्ममे सामरैः पुरी ॥७१।। स्वस्वर्गस्रिदशावासः स्वल्प इत्यवमत्य तम् । परश्शतजनावासभूमिकां तां नु ते व्यधुः ।।७२।। इतस्ततश्च विक्षिप्तानानीयानीय मानवान् । पुरी निवेशयामासुविन्यासविविधैः सुराः ।।७३।। नरेन्द्रभवनं चास्याः सुरमध्ये निवेशितम् । सुरेन्द्रभवन स्पद्धिपराद्धर्य विभवान्वितम् ।।७४॥ सुत्रामा सूत्रधारोऽस्याः शिल्पिनः कल्पजाः सुररा: । वास्तुजातं मही कृत्स्ना सोद्धा नास्तु कथं पुरी ।।७।। संचस्करुश्च तां वप्रपाकारपरिखादिभिः । अयोध्यां न परं नाम्ना गुणेनाप्यरिभिः सुराः ॥७६॥ साकेतरूढिरप्यस्याः एलाध्यैव स्वनिकेतनः । स्वनिकेतमिवाह्वातु साकूतैः केतुबाहुभिः ॥७७।। सुकोशलेति च रूपाति सा देशाभिख्यया गता । विनीतजनताकीर्णा विनीतेति च सा मता ॥७॥ बभौ सुकोशला भाविविषयस्यालघीयसः । नाभिलक्ष्मी दधानासो राजधानी सुविश्रुता । ७६।। सनुपालयमुदीप्रशालं सखातिकम् । तद्वय॑न्नगरारम्भे प्रतिच्छन्दायितं पुरम् ॥८॥ पुण्येऽहनि मुहूर्ते च शुभयोगे शुभोदये । पुण्याहघोषणां तत्र सुराश्चक्रुः प्रमोदिनः ।।८।। अध्यवात्तां तदानीं तो तमयोध्यां महर्टिकाम् । दम्पती परमानन्दादाप्तसम्पत्परम्परो ॥२॥ विश्वदृवैतयोः पुत्रो जनितेति शतक्रतुः । तयोः पूजां व्य रत्तोच्चै भिषेकपुरस्सरम् ।।३।।
मरुदेवी और नाभिराज से अलंकृत पवित्र स्थान में जब कल्पवृक्षों का अभाव हो गया तब वहाँ उनके पुण्य के द्वारा बार-बार बुलाये हुए इन्द्र ने एक नगरी की रचना की ॥६९।। इन्द्र की आज्ञा से शीघ्र ही अनेक उत्साही देवों ने बड़े आनन्द के साथ स्वर्गपुरी के समान उस नगरी की रचना की ॥७०॥ उन देवों ने वह नगरी विशेष सुन्दर बनायी थी जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो इस मध्यम लोक में स्वर्गलोक का प्रतिबिम्ब रखने की इच्छा से ही उन्होंने उसे अत्यन्त सुन्दर बनाया हो ।।७१।। 'हमारा स्वर्ग बहुत ही छोटा है क्योंकि यह त्रिदशावास है अर्थात् सिर्फ त्रिदशतीस व्यक्तियों के रहने योग्य स्थान है (पक्ष में त्रिदश = देवों के रहने योग्य स्थान है) - ऐसा मानकर ही मानों उन्होंने सैकड़ों-हजारों मनुष्यों के रहने योग्य उस नगरी (विस्तृत र वर्ग) की रचना की थी ॥७२॥ उस समय जो मनुष्य जहाँ तहाँ बिखरे हए रहते थे, देवों ने उन सबको लाकर उस नगरी में बसाया और सबके सुभीते के लिए अनेक प्रकार के उपयोगी स्थानों की रचना की ।।७३।। उस नगरी के मध्य भाग में देवों ने राजमहल बनाया था। वह राजमहल इन्द्रपुरी के साथ स्पर्धा करने वाला था और अनेक बहुमूल्य विभूतियों से सहित था॥७४॥ जब कि उस नगरीकी रचना करने वाले कारीगर स्वर्ग के देव थे, उनका अधिकारी सूत्रधार इन्द्र था और मकान वर्गरह बनाने के लिए सम्पूर्ण पृथ्वी पड़ी थी तब वह नगरी प्रशंसनीय क्यों न हो ? ॥७॥ देवों ने उस नगरी को वप्र (धूलि के कालजयी व्यक्तित्व
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