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लेखक:
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सामाजिक प्रगति
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जैन समाज क्यों मिट रहा है? अयोध्याप्रसाद
गोयलीय
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जन-समाज अपनेको उस पवित्र एवं जो गायक अपनी स्वर-लहरीसे मृतकोंमें
शक्तिशाली धर्मका अनुयायी बतलाता जीवन डाल देता था, वह :आज स्वयं मृत-प्राय है जो धर्म भूले-भटके पथिकों-दुराचारियों क्यों है ? जो सरोवर पतितो-कुष्ठियोंको पवित्र तथा कुमार्ग-रतोंका सन्मार्ग-प्रदर्शक था, पतित
बना सकता था, आज वह दुर्गन्धित और मलीन पावन था. जिस धर्ममें धार्मिक-सङ्कीर्णता और क्यों है ? जो समाज सूर्य के समान अपनी प्रग्वर अनुदारुताके लिये स्थान नहीं था, जिस धर्मने किरणोंके तेजसे संसारको तेजोमय कर रहा था, समचे मानव समाजको धर्म और राजनीतिके श्राज वह स्वयं तेजहीन क्यों है ? उसे कौनसे समान अधिकार दिये थे, जिस धर्मने पशु-पक्षियों गहने ग्रस लिया है ? और जो समाज अपनी और कीट-पतंगों तक उद्धारके उपाय बताये कल्पतम-शाखाओंके नीचे सबको शरण देता था, थे. जिस धर्मका अस्तित्व ही पतितोद्धार एवं वही जैन समाज अाज अपनी कल्पतरु-शाखा लोकसेवा पर निर्भर था, जिस धर्म के अनुयायी काटकर बचे खुच शरणागतोंको भी कुचलनेके चक्रवर्तियों, सम्राटों और प्राचार्योने करोड़ों म्लेच्छ लिये क्यों लालायित हो रहा है ? अनार्य तथा असभ्य कहेजाने वाले प्राणियोंको जैनधर्म में दीक्षित करके निरामिष-भोजी, धार्मिक यही एक प्रश्न है जो समाज-हितैषियोंके तथा सभ्य बनाया था, जिस धर्मके प्रसार करनेमें हृदयको खुरच-खुरचकर खाये जारहा है। दुनियाँ मौर्य, ऐल, राष्ट्रकूट, चाल्युक्य, चोल, होयसल और द्वितीयाके चन्द्रमाके समान बढ़ती जारही है, मगर गंगवंशी राजाओंने कोई प्रयत्न उठा न रक्खा जैन-समाज पूर्णिमाके चन्द्रमाके समान घटता था और जो धर्म भारतमें ही नहीं किन्तु भारतके जारहा है । आवश्यकतासे अधिक बढ़ती हुई बाहर भी फैल चुका था। उस विश्वव्यापी जैन- संसारकी जन-संख्यासे घबड़ाकर अर्थ-शास्त्रियांन धर्मके अनुयायी वे करोड़ों लाल आज कहाँ चले घोषणा की है कि "अब भविष्यमें और मन्तान गये ? उन्हें कौनसा दरिया बहा ले गया ? अथवा उत्पन्न करना दुख दारिद्रयको निमंत्रण देना है।" कौनसे भूकम्पसे वे एकदम पृथ्वीके गर्भ में समा इतने ही मानव-समूहके लिये स्थान तथा भोज्यगये ?
पदार्थका मिलना दूभर हो रहा है, इन्हींकी पूर्ति