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वर्ष २ किरण ३] - क्या सिद्धान्त-प्रन्थों के अनुसार सब ही मनुष्य उच्चगोत्री हैं !
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उपस्थित होगा, उसके एक दो उदाहरण इस ज सामगणं गहण, इत्यादि गाथाका व्याख्यान प्रकार हैं
करते समय एक वाक्या इस प्रकार है-"अविसं. श्रीधवल जीमें दर्शनोपयोगकी चर्चा में, सदूणम?' इति-अर्थात् अविशेष्य यद् महणं सद् में एक चूर्णिमूत्र देकर जो कुछ इसके पूर्व लिखा गया है वह सब इस प्रकार है
"अकम्मभूमियस्स पडिवज्जमाणस्स जहण्णयं संजमट्ठाणमणंतगुणं । (चू० सू० ) पुग्विलादो भसंखे. लोगमत्तछट्ठाणाणि उवरि गतूणेदस्स समुप्पत्तीए । को अकम्मभूमिओ णाम ? मरहेरावयविदेहेसु विणीतसण्णिदमज्झिमखंडं मोत्तण सेसपंचखंडविणिवासी मणुमो एस्थ 'अकम्मभूभिभो' त्ति विवक्खियो। तेसु धम्मकम्मपवुत्तीए असंभवेण तम्भावोववत्तीदो।"
___ इसमें सूत्रद्वारा अकमभूमिक मनुष्यके जघन्यसंयमस्थानको अनन्तगुणा बतलाकर और फिर उसकी कुछ विशेषताका निर्देश करके यह प्रश्न उठाया गया है कि 'भकर्मभूमिक' मनुष्य किसे कहते हैं ? उत्तरमें बतलाया है कि 'भरत, ऐरावत और विदेहक्षेत्रों में "विनीत' नामके मध्यमखण्ड (आर्य खण्ड) को छोड़कर शेष पाँच खण्डोंका विनिवासी (कदीमी वाशिंदा) यहाँ 'भकर्मभूमिक' इस नामसे विवक्षित है; क्योंकि उन पाँच खण्डोंमें धर्म-कर्मकी प्रवृत्तियाँ भसमव होनेके कारण उस भकर्मभूमिक भावकी उत्पत्ति होती है।
इसके बाद ही “जइ एवं कुदो तत्थ संजमगहणसंभवो?" नामका वह प्रश्न दिया गया है, जिससे बाबू साहबके लेखमै उद्धृत प्रमाणवाक्यका प्रारंभ होता है और जिसका अर्थ है--यदि ऐसा है-उन पाँच खण्डोंमें ( वहाँ के निवासियों में ) धर्म-कर्मकी प्रवृत्तियाँ असंभव है तो फिर वहाँ ( उन पाँच खण्डोंके निवासियोंमें ) संयम-ग्रहण कैसे संभव हो सकता है? और फिर, “त्ति णासंकणिज्ज" इत्यादि वाक्योंके द्वारा प्रश्नगत शंकाको निर्मूल बतलाते हुए, दो उदाहरणों को साथ लेकर-हतुकी पुष्टिमें दो उदाहरण देकर नहीं-विषयका स्पष्टीकरण किया गया है और यह बतलाया गया है कि किस प्रकार उन पाँच खण्डोंके मनुष्योंके सकलसंयम हो सकता है, जिसका स्पष्ट आशय यह है कि उन पाँच ग्वण्डोंके म्लेच्छ मनुष्यों में सकल-संयम-ग्रहणकी पात्रता तो है परन्तु वहाँकी भूमि उसमें बाधक है-वह भूमि धर्म-कर्मक अयोग्य है-और इसलिये जब वे चक्रवति भादिके साथ आर्यखण्डको भाजाते है तब यहाँ भाकर खुशीसे सकलसंयम धारण कर सकते है। उनकी इस संयमप्रतिपत्ति भोर स्वीकृतिमें कोई विरोध नहीं है।
ऐसे कथन और स्पष्टीकरणकी मौजूदगीमें कोई भी विवेकी मनुष्य यह कल्पना नहीं कर सकता कि शंकाको निर्मूल बतलाने वाले प्राचार्य महोदयका वह सिद्धान्त नहीं है जो उक्त सूत्र में उल्लेखित हुआ है अथवा वह उनकी मान्यता नही है जिसको उन्होंने अपने समाधान-द्वारा स्पष्ट और पुष्ट किया है। और इसलिये शास्त्री जी ने जयधवलकी ऐसी स्पष्ट बातके विरोधमें जो कुछ लिखनेका प्रयत्न किया है वह सब उनकी विचारशीलताका द्योतक नहीं है। उन्हें ऊपरका सारा प्रसंग मालूम होने पर स्वयं हो अपनी इस व्यर्थकी कृतिके लिये खेद होगा--इसके लिये पछताना पड़ेगा कि 'इति' शब्दका अर्थ बाबू साहबके 'भावार्थ' में साफ तौर पर 'एसी' दिया होने पर भी खींचतान-द्वारा उसे जो 'इसमें' अर्थ बतलाया गया था उससे भी अपने अभीष्टकी अथवा आचार्यमहोदयके उस सिद्धान्त-मान्यताके प्रभावको सिदि न हो सकी-और यदि सद्भावना अथवा सदाशयता का तकाज़ा हुभा तो लेखमें बा० सूरजभानजीके लिये जिन अोछे शब्दोंका प्रयोग किया गया है, उनके फलितार्थको पढ़कर सिर धुने बिना न रहने भादि की जो बात कही गई है और उन्हें वृद्धावस्थामें अत्याचार न करने का जो अप्रासंगिक एवं अनधिकृत परामर्श दिया गया है उस सबको वापिस मो लेना पड़ेगा।
मुझे खेद है कि शास्त्रीजीने बाबू सूरजमानजीके फलितार्थको यों ही कदर्षित करनेकी धुनमै दो तीन उदाहरणों के द्वारा अपने खण्डनको जो भूमिका बाँधी है अथवा उसे विशद करनेकी चेष्टा की है उसमें सत्यसे काम न लेकर कुछ बलसे काम लियाहैउन उदाहरणों की पंक्तियोंके साथ प्राशंकित सिद्धान्तकी मान्यतादिके सूचक “जब एवं कुदो तस्थ" जैसे शब्दोंक वाचक कोई शब्द नहीं है-न उन्हें तुलनाके लिये रखा गया है-फिर भी उन वाक्योंकी तुलना जयधवलके वाक्यसे की गई है और इस तरह असंगत उदाहरणों-दारा ग़लत अर्थका प्रतिपादन करके अपने पाठकों को जान बूझ कर भुलावे तथा भ्रममें डाला गया है!! सदिचारकोंके द्वारा ऐसा अनुचित कस्य न होना चाहिये--वह उनको शोमा नहीं देता। -सम्यादक
I धवल की दर्शनविषयक चर्चाका कुछ अंश मेरो नोटबुकमें उद्धृत है, उसी परसे यह वाक्य दिया गया है।