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अनेकान्त
[आश्विन, वीर-निर्वाण सं०२४६५
सिद्धान्तसे विरुद्ध पड़ती है, सिद्धान्तप्रन्थोंमें गोत्र- र्गोत्रम् । न चात्र पूर्वोक्तदोषाः संभवन्ति विरोधात् । का संक्रमण-ऊँचसे नीच और नीचसे ऊँच गोत्र तद्विपरीतं नीचैर्गोत्रम् ।" बदलना-माना गया है ।।
अर्थात्-उन पुरुषोंकी सन्तान उचगोत्र होती __ आचार्य वीरसेन धवला टीकामें उच्चगोत्रके है जो दीक्षायोग्य साधु-आचारसे सहित हों, जिनने व्यवहारके विषयमें अनेक शंकाएँ उठाते हुए उसकी साधु-आचारवालोंके साथ सम्बन्ध किया हो, असंभवता बतलाते हैं। यथा-"ततो निष्फल- और जो आर्य होने के कारणों-व्यवहारोंसे सहित • मुच्चैर्गोत्रं, तत एव न तस्य कर्मत्वमपि तदभावेन नी- हो । तथा ऐसे पुरुषोंकी सन्तान होनेमें जो कर्महेतु
चैर्गोत्रमपि द्वयोरन्योन्याविनाभावित्वात्। ततो गोत्र- होता है उसे भी उच्चगोत्र कहते हैं। इस उच्चगोत्रकर्माभावः” अर्थात-जब राजा, महाव्रती आदि के लक्षणमें पूर्वपक्षमें लिखे गये समस्त दोषोंका अजीवोंमें उच्च-गोत्रका व्यवहार ठीक नहीं बनता, भाव है क्योंकि उक्त लक्षण और दोषोंमें विरोध है तब उचगोत्र निष्फल जान पड़ता है; इसलिये अर्थात् लक्षण बिलकुल ही निर्दोष है। उपगोत्रसे उचगोत्रका कर्मपना भी बनता नहीं। उच्चगोत्रके विपरीत नीचगोत्र है-जो लोग उक्त पुरुषोंकी अभावसे नीचगोत्रका भी अभाव हो जाता है; सन्तान नहीं हैं और उनसे भिन्न आचार-व्यवहार क्योंकि दोनोंमें अविनाभाव सम्बन्ध है-एकके वालोंकी सन्तान हैं वे सब नीच-गोत्र कहलाते हैं, अभावमें दूसरेका भी अभाव नियमसे होता है। ऐसे लोगोंकी सन्तानकी उत्पत्तिमें जो कर्म कारण
और जब उच-नीच-गोत्रका अभाव है, तब उन होता है उसे भी नीचगोत्र कहते हैं। दोनोंसे भिन्न कोई अन्य गोत्रकर्म ठहरता नहीं, यद्यपि श्री वीरसेनाचार्य अपने लक्षणको निइसलिये उसका भी अभाव सिद्ध होता है। इस र्दोष बतलाते हैं, परन्तु उक्त लक्षण दोषोंसे खाली पूर्व पक्षके बाद गोत्रकर्मको निष्फलता हटाने और नहीं हैं। देवोंका उपपाद-जन्म माना गया है, इसउसका अस्तित्व सिद्ध करनेके लिये उक्त आ. लिये वे किसी साधु-आचारवाले आदि मनुष्योंकी चार्य उच्च-नीच-गोत्रका लक्षण निम्न प्रकार लिखते सन्तान नहीं माने जा सकते, फिर उन्हें उच्चगोत्री
क्यों माना गया ? नारकियोंको भी औपपादिक “दीक्षायोग्यसाध्वाचाराणां साध्वाचारैः कृतस- जन्मवाला माना गया है, अतः उन्हें भी किन्हीं म्बन्धानामार्यप्रत्ययाभिधानव्यवहार-निबन्धनानां पू. असाधु-व्यवहारवाले आदि मनुष्योंकी सन्तति नहीं रुषाणो सन्तान उच्चैर्गोत्रम्, तत्रोत्पत्तिहेतकमप्यच्चै- कहा जा सकता, फिर उन्हें नीचगोत्री क्यों कहा
...... गया ? पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चोंको छोड़ शेष सभी एकेहै देखो, गोम्मटसार-कर्मकाण्ड गाथा ४४१। न्द्रिय,द्वीन्द्रिय,त्रीन्द्रिय औरचतुरिन्द्रिय तिर्यञ्चोंकी
इस अवतरब और अगले अवतरणके लिये देखो भी सन्तति नहीं चलती,वेसम्मूर्छन जन्मवाले माने 'भनेकान्त' वर्ष २ की किरण २ का उँचगोत्रका न्य- जाते हैं और पंचेन्द्रिय तिर्यश्च भी किन्हीं हीनाचारी बहार कहाँ।' शीर्षक सम्पादकीय लेख । पुरुषोंकी सन्तान नहीं होते, फिर उन्हें क्यों नीच