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वर्ष २, किरण ५]
गोत्र कर्म पर शास्त्रीजीका उत्तर लेख
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जाती !! अथवा ऐसा करदिया जाता तो और भी अच्छा पदसे ऐसी दो जातियोंका ग्रहण अभीष्ट है, तब चंकि होता कि उन बेटियोंसे पैदा होने वाली सन्तान ही सकल- आर्यखंडको आए हुए उन साक्षात् म्लेच्छोंकी जो जाति संयमकी अधिकारिणी है-दूसरा कोई भी म्लेच्छखंडज होती है वही जाति म्लेच्छखंडोंके उन दूसरे म्लेच्छोंकी मनुष्य उसका पात्र अथवा अधिकारी नहीं है !! ऐसी भी वही है जो आर्यखंडको नहीं पाते हैं, इसलिये स्थितिमें ही शायद उन श्राचार्योंकी सिद्धान्तविषयक साक्षात् म्लेच्छ जाति के मनुष्योंके सकलसंयम-ग्रहणकी समझ-बूझका कुछ परिचय मिलता !!! परन्तु यह सब पात्रता होनेसे म्लेच्छखंडोंमें अवशिष्ट रहे दूसरे म्लेच्छ भी कुछ अब बन नहीं सकता, इसीसे स्पष्ट शब्दोंके अर्थकी सकलसंयमके पात्र ठहरते हैं--कालान्तरमें वे भी अपने भी खींचतान-द्वारा शास्त्री मी उसे बनाना चाहते हैं !!! भाई-बन्दों (सजातीयों) के साथ आर्यखंडको पाकर ___ शास्त्रीजीने अपने पूर्वलेखमें 'तथाजातीयकानां दीक्षा ग्रहण कर सकते हैं । और इस तरह सकलसंयमदीक्षार्हत्वप्रतिषेधाभावात'इस वाक्यकी,जोकि जयधवला ग्रहणकी पात्रता एवं संभावनाके कारण म्लेच्छुखंडोंके
और लब्धिसार-टीका दोनोंमें पाया जाता है और उनके सभी म्लेच्छोंके उच्चगोत्री होनेसे बाबू सूरजभानजीका प्रमाणोंका अन्तिम वाक्य है, चर्चा करते हुए यह बत- वह फलितार्थ अनायास ही सिद्ध हो जाता है, जिसके लाया था कि इस वाक्यमें प्रयुक्त हुए 'तथा जातीयकानां' विरोधमे इतना अधिक द्राविडी प्राणायाम किया गया है।' पदके द्वारा म्लेच्छोंकी दो जातियोंका उल्लेख किया गया म्लेच्छखंडोंमें अवशिष्ट रहे म्लेच्छोंकी कोई तीसरी है-एक तो उन साक्षात् म्लेच्छोंकी जातिका जो म्लेच्छ- जाति शास्त्रीजी बतला नहीं सकते थे, इसलिये उन्हें मेरे खंडोंसे चक्रवर्ती आदिके साथ आर्यखंडको श्रा जाते हैं उक्त नोटकी महत्ता को समझनेमें देर नहीं लगी और वे तथा अपनी कन्याएँ भी चक्रवर्ती श्रादिको विवाह देते ताड गये कि हम तरह तो सचमच हमने बद ही अपने हैं और दूसरे उन परम्परा म्लेच्छोंकी जातिका जो उन हाथों अपने सिद्धान्तकी हत्या कर डाली है और अजानम्लेच्छ कन्याओंसे आर्य पुरुपोंकेसंयोग द्वारा उन्पन्न होते में ही बाब साहब के सिद्धान्तकी पुष्टि करदी है !! अब करें हैं । इन्हीं दो जाति वाले म्लेच्छोंके दीक्षाग्रहणका निषेध तो क्या करें ? बाब साहबकी बातको मान लेना अथवा नहीं है। साथ ही लिखा था कि-"इस वाक्यसे यह निष्कर्ष चप बैठ रहना भी इष्ट नहीं समझा गया, और इसलिये निकलता है कि अन्य म्लेच्छोंके दीक्षाका निषेध है । शास्त्रीको प्रस्तुत उत्तरलेखमें अपनी उस बातसे ही फिर यदि टीकाकारको लेखकमहोदय (बा० सूरजभानजी) का गये है !! अब वे 'तथाजातीयकानाम्' पदमें एक ही सिद्धान्त अभीष्ट होता तो उन्हें दो प्रकारके म्लेच्छोंके जातिके म्लेच्छोंका ममावेश करते हैं और वह है उन संयमका विधान बतलाकर उसकी पुटिके लिये उक्त म्लेच्छ कन्याश्रॉस आर्य पुरुषोंके सम्बन्ध-द्वारा उत्पन्न अन्तिम पंक्ति (वाक्य) लिखनेकी कोई अावश्यक्ता ही होनेवाले मनुष्योंकी जाति !!! इसके लिये शास्त्री जीको नहीं थी, क्योंकि वह पंक्ति उक्त सिद्धान्त----सभी म्लेच्छ शब्दोंकी कितनी ही खींचतान करनी पड़ी है और अपनी खंडोंके म्लेच्छ सफलसंयम धारण कर सकते हैं--के नासमझी, कमजोरी, दिलमुलयकीनी, डाँबाडोल परिणति विरुद्ध जाती है।" इस पर मैंने एक नोट दिया था और तथा हेराफेरीको जयधवल के रचयिता भाचार्य महाराज उसमें यह सुझाया था कि--'यदि शास्त्रीजीको उक्त. ऊपर लादते हुए यहाँ तक भी कह देना पड़ा है कि