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वर्ष २, किरण []
सिद्धसेन दिवाकर
कुश्रुत, कुअवधि संशाएँ कही गई हैं । ज्ञान-सामान्यकी बिना फल दिये ही निर्जरा होनेपर, और आगामी निषेकों दृष्टि से दोनों ही समान हैं । मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय का सदवस्थारूप उपशम होनेपर (उदीरणाकी अपेक्षा) ज्ञानको विभावरूप कहनेका अर्थ इतना ही है, कि ये तथा देशघाति स्पर्धोका उदय होनेपर क्षयोपशम होता ज्ञान पूर्णशान नहीं हैं, ये सब आँशिकज्ञान हैं । आँशिक है। यहाँ देशघाति स्पर्धकोंका उदय उस ज्ञान के व्यापारतथा अपरिपूर्ण होनेके कारण इनको विभावरूप कहा में कोई व्यापार नहीं करता । वह तो अप्रकटित शानके है । तथा पूर्णज्ञानको स्वाभाविक कहा है । यहाँ विभाव रोकनेमें ही कारण है । प्रगटित ज्ञान पर किसी तरहका शब्दका यह अर्थ नहीं किया जा सकता कि इनके हस्तक्षेप नहीं करता। इससे सिद्ध होता है कि शान प्रगटित अंशको शानावरणीय कर्म घात रहा है और जितने अंशमें प्रकट है, उतने अंशमें वह स्वाभाविक उसके कारण इसमें विभावता श्रारही है । हाँ ! जहाँ है विकृत या वैभाविक नहीं है। पंचाध्यायीकारने इसी पर मिथ्यात्वका उदय रहता है, वहाँ शानको विभाव अभिप्रायसे मतिश्रुत ज्ञानको प्रत्यक्ष के समान बताया कहा जा सकता है । ज्ञान स्वतः वैभाविक नहीं है। है । यथा--
ज्ञानावरणीय कर्मसे श्रावृतशानको किसी अपेक्षासे दूरस्थानानिह समक्षमिव वेत्ति हेलया यस्मात् । विभावरूप कह सकते हैं। क्योंकि.उसके ढके हुए ज्ञानपर केवलमेव मनः सादवधिमनःपर्ययद्वयं ज्ञानम् ॥ ज्ञानावरणीव कर्मका असर है । जितने अंश पर ज्ञाना
अपि किंवाभिनिवोधिकयोधद्वैतं तदादिमं यावत् । वरणका असर नहीं है, उतने अंशमें ज्ञान प्रगट होता है।
स्वास्मानुभूतिसमये प्रत्यक्षं तत्सममिव नान्यत् ॥ तथा जितने अंश पर ज्ञानावरणका असर होता है उतने
-७०५७०६ अंशमें ज्ञान प्रगट नहीं हो सकता। ज्ञानकी प्रकटता और अप्रकटता क्षयोपशमके द्वारा होती है। क्षयोपशमका अर्थात्--अवधि और मनपर्ययज्ञान केवल मनकी लक्षण निम्न प्रकार है--
__ सहायतासे दूरवर्ती पदार्थोंको लीलामात्र प्रत्यक्ष जान देशतः सर्वतोघातिस्पर्धकानामिहोदयात् । लेते हैं; और तो क्या, मति ज्ञान और श्रुतज्ञान भी स्वाबायोपशमिकावस्था न घेज्ज्ञानं न खब्धिमत् ॥ त्मानुभूति के समय प्रत्यक्षज्ञानके समान प्रत्यक्ष हो जाते
-पंचाध्यायी, २-३०२ है, अन्य-समयमें नहीं । केवल स्वात्मानुभव के समय जो अर्थात्-देशघातिस्पर्धकोंका उदय होनेपर तथा ज्ञान होता है, वह यद्यपि मतिज्ञान है, तो भी वह वैसा सर्वघाति स्पर्धकोंका उदयक्षय होनेपर क्षयोपशम होता ही प्रत्यक्ष है, जैसा कि अात्म मात्र-सापेक्षज्ञान प्रत्यक्ष है। ऐसी क्षयोपशम अवस्था यदि न हो तो वह लब्धिरूप होता है। ज्ञान भी नहीं हो सकता।
इन प्रमाणों से यही ज्ञात होता है कि बायोपशमिक . "सर्वघातिस्पर्धकानामुदयच्यात् तेषामेव सदुपशमात् ज्ञान स्वतः विकृत नहीं होते, न कर्मोपाधि सहित होते हैं, देशघातिस्पर्धकानामुदये शायोपशमिको भावः ॥" जिससे वे वैभाविक कहे जा सकें । श्राचार्योंने जहाँ भी
-राजवार्तिक, २-५ क्षायोपशमिक ज्ञानको वैभाविक-कहा है, वहाँ उन्होंने अर्थात्--सर्वघातिस्पर्धकोंके वर्तमान निषेकोंका अपरिपूर्णता अथवा इन्द्रियादिककी सहायता लेने के