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वर्ष २, किरण ३]
जैनसमाज किधरको?
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मित्र जैनसमाजकी पतित अवस्थासे दुखी होकर उड़ाने और नामवरी कमानेवाले संस्था-संचालक कहा करते थे कि जैनियों पर किसी कविका यह जगह-जगह पर नज़र आने लगे हैं और उनके कहना ठीक लागू होता है:-
कारण समाज पर अथके खर्चका बोझ बढ़ता जाकिस किसका फ़िक कीजिए किस किसको रोइये, रहा है तथा अच्छी संस्थाएँ रूपयोंके भभावमें पाराम बड़ी चीज़ है मुंह ढकके सोइये। अर्थसंकटमें पड़ी हुई हैं। समाजकी भावाज और
किन्तु मुँह ढककर सोनेसे समाजका संकट शक्ति इतनी दुर्बल है कि माज उसका न समाजमें टलता हो, उसकी कठिनाइयाँ कम होती हों तो वह महत्व है और न समाजसे बाहर । समाजकी मार्ग ग्रहण करनेमें कोई हानि नहीं है। पर ऐसा समस्याएँ और जनताके सामान हितके प्रश्न भाज नहीं है।
वहीं हैं जहां बीस वर्ष पहिले थे । साहित्यिक क्षेत्र__ जैनसमाजमें नेता ही नेता हैं । अनुयायी या में कोई विशेष प्रगति नहीं है। कितने प्रन्य अभी सिपाही कोई नहीं है । संस्थाएँ छोटी हो या बड़ी तक शाल भण्डारोंमें पड़े हुए धप और हषाके प्रायः सभी अखिल भारतवर्षीय नामधारी हैं, पर बिना बेपर्वाहीके कारण दीमकोंका भोजन बन उनका संचालन कैसा रही है, यह कोई नहीं सो रहे हैं इसकी तरफ किसीका ध्यान ही नहीं है। चता । सभापतियों और महामंत्रियों तथा अधि- संस्कृत और प्राकृत भाषाके ग्रंथ हिन्दी अनुवादके छाताओंकी भरमार है, पर काम करनेवाला कोई बिना केवल चन्द विद्वानोंके अध्ययन और मन्दिरों नहीं । पत्र पढ़ने वाले इने गिने, पर पत्रोंकी भर की अल्मारियोंकी शोभाकी वस्तु बने हुए हैं ! मार ! शक्तियोंका अपव्यय होरहा है ! दान करने- गर्ज एक बात हो तो लिखी जाय। में तो जैनसमाज अपना उदाहरण नहीं रखता,पर इसके इलावा एक प्रश्न यह भी है कि भाज उस दानका बड़ा भाग प्रचारकोंकी तनख्वाह वे आदर्श कहाँ हैं जिनका प्रचार हमारे पूज्य तीर्थतथा सफर खर्चमें जाता है और जो कुछ बाकी करों तथा भाचार्योने किया था । भनेकान्तवाद, रुपया संस्थामें पहुँचता है वह संस्था प्रबन्धमें साम्यवाद, अहिंसा, लोकहित, भात्महित, स्थावखचे होजाता है, समाजको उसका क्या बदला लम्बन, मैत्री भाव, विश्वप्रेम, गुरुटमका प्रभाव ( Return ) मिलता है यह सोचना दातारोंका और मनुष्य जातिकी एकता भादि ऐसे प्रादर्श है काम नहीं ! वे दान दे चुके, पुण्य प्राप्त कर चुके, जिनका हमारे विद्वान शाखसभाओं तथा वीरजयंती उसकी देखभाल करना उनका काम नहीं ! वे यह उत्सवों में बड़े गर्व के साथ अलाप करते हैं। भाज कहकर संतुष्ट होजाते हैं कि दानके लेनेवाले भव नभादशोंके प्रचारकी कितनी जरूरत है, यह उस रुपयेका सदुपयोग या दुरुपयोग करके अच्छे भी हम सब जानते हैं। परन्तु जब उनको हम स्वयं कोका बन्धन बाँधे,या बुरे कर्माका इसे वे जानें। अपने घरों में, समाजमें, संस्थानोंमें, उपयोगमें नहीं दातारोंके इस अनियंत्रित दानका एक बुरा फल लाते, तब किस तरह उनकी उपयोगिताका मायक्ष यह होरहा है कि सहजमें चन्दा इकट्ठा करके मौज दूसरोंको किया जा सकता है ? भाज समझदार