Book Title: Anekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 712
________________ अनेकान्त [अाश्विन, वीर-निर्वाण सं०२४६५ ही छोड़ भी सकेंगे; बेफ्रिक होकर नहीं बैठे रहेंगे। नरकमें और कभी स्वर्गमें, कभी किसी अवस्थामें और __ वैज्ञानिक रीतिसे खोज करने पर अर्थात् वस्तु कभी किसीमें; इन सबका मूलकारण रागद्वेष व मान स्वभाव की जांच करने पर यह पता चलता है कि बिना माया आदि कषायें ही होती हैं, तीब्र वा मंद, हल्की वा दुसरे पदार्थके मेलके वस्तुमें कोई विगाद नहीं आसकता भारी, बुरी वा भली जैसी कषाय होती है, वैसा ही है, ऐसा ही श्री वीर भगवान्ने समझाया है और खोल- कर्मबन्ध होता है, और वैसा ही उसका फल मिलता कर बताया है कि जीवात्मामें भी जो बिगाड़ पाता है है। इस कारण जैन धर्मका तो एकमात्र मूलमंत्र कषायों वह अजीवके मेलसे ही आता है; जिस प्रकार नेवघड़ी- को जीतना और अपने परिणामोंकी संभाल रखना ही की डिबियाके अन्दर जो हवा होती है, उसमें धूलके जो है। इसके सिवाय जैनधर्म तो और किसी भी प्राडम्बरोंबहुत ही बारीक कण होते हैं वे घड़ीके पुजों में लगी में फसने की सलाह नहीं देता है, जो कुछ भी उपाय हुई चिकनाईके कारण उन पुर्जीसे चिपट जाते हैं और बताता है वह सब परिणामोंकी दुरुस्तीके वास्ते ही घड़ीकी चालको बिगाड़ देते हैं, इस ही प्रकार जब यह सझाता है। उन तर्कीबोंका भी कोई अटल नियम नहीं संसारी जीव राग द्वेष आदिके द्वारा मनवचनकायकी बनाता है, किन्तु जिस विधिसे अपने भावों और परिकोई क्रिया करता है तो इस क्रिया के साथ शरीर यामों की संभाल और दुरुस्ती हो सके ही वैसा करनेका अन्दर की जीवात्मा भी हिलती है और उसके हिलनेसे उपदेश देता है। जिन धर्मोंने ईश्वरका राज्य स्थापित उसके भासपासके महा सक्ष्म परमाणु जो उस जीवात्मा किया है. उन्होंने राजाज्ञाके समान अपने अपने अलग में घुल मिल सकते हों उसमें घुलमिल जाते हैं। जिससे अलग ऐसे विधि विधान भी बांध दिये हैं जिनके अनुरागद्वेष आदिके कारण जो संस्कार जीवात्मामें पैदा सार करने से ही ईश्वर राजी होता है । मुसलमान जिस हुभा है अर्थात् जो भावबन्ध हुश्रा है उसका वह बन्ध प्रकार खड़े होकर झुककर बैठकर और माथा टेक कर इन अजीव परमाणुओंके मिलनेसे पक्का हो जाता है। नमाज़ पढ़ते हैं और अपने ईश्वरको राजी करते हैं उस भावार्थ,-घडीके पुर्जीकी तरह उसमें भी मैल लगकर प्रकार वन्दना करनेसे हिन्दुओंका ईश्वर राजी नहीं हो उसकी चालमें बिगाड़ आजाता है, बार बार रागद्वेष मकता है। और जिस प्रकार हिन्दु बन्दना करते हैं उस पैदा होनेका कारण बंध जाता है, इस ही को द्रव्यबंध विधिसे मुसलमानोंका ईश्वर प्रसन्न नहीं होता है; इस अर्थात दूसरे पदार्थोंके मिलनेका बंध कहते हैं। ही कारण सब ही धर्मवाले एक दूसरे की विधिको घृणा इस प्रकार रागद्वेषरूप भाव होनेसे भावबंध और की दृष्टिसे देखते हैं और द्वेष करते हैं । परन्तु वीर भगभावबन्धके होनेसे द्रव्यबंध, और फिर इस नव्यबंधके वान्ने तो कोई ईश्वरीयराज्य कायम नहीं किया है, फलस्वरूप रागद्वेषका पैदा होना अर्थात भावबंधका किन्तु वस्तु स्वभाव और जीवात्माके बिगड़ने संभलनेके होना, इस प्रकार एक चक्करसा चलता रहता है, इस ही कारणोंको वैज्ञानिक रीतिसे वर्णन कर जिस विधिसे से संसरण अर्थात् संसार परिभ्रमण होता रहता है। भी होसके उसकी संभाल रखनेका ही उपदेश दिया है, कभी किसी पर्यायमें और कभी किसीमें, अर्थात् कभी इस ही कारण न कोई खास विधी विधान बांधा है, कीड़ा मकोदा, कभी हाथी घोड़ा, कभी मनुष्य, कभी और न बंध ही सकता है; यह सब प्रत्येक जीवकी अब.

Loading...

Page Navigation
1 ... 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759