Book Title: Anekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 723
________________ वर्ष २, किरण १२] यह सितमगर कब ६५३ दिलाती हूँ कि ऐसा कोई भी उदाहरण हमारे सा- पति हमारे लिये ही कसाई बन कत्र खोदनेका प्रमने नहीं जहां हम पर्देवालीकी नैतिकताकी दाद दे या नहीं करते ? सकें ! फिर किस उसूलके भरोसे हम पर्दा प्रथाको हम यह जानती हैं कि वर्तमानका युवक वर्ग पकड़े रहें? इस बेहूदा रूढ़ीकी हानियोंको महसूस करने लगा __पुरुष पाठक इस बातको शायद नहीं जानते हैं है पर उसमें इतना पुरुषार्थ अवशेष ही नहीं रहा कि इस कबमें जीवित दफनाई जानेके कारण है कि वह दो कदम आगे बढ़ इस बीमारीसे हमारा आज मातृजातिमें प्राणदायिनी शक्तिका नाम शेष उद्धार करे । इस खूखार व्याधिके मुखमें फँसी हुई ही नहीं बचा है । हमारे जीवनकी विकसित होती देखकर उसकी आत्म तिलमिला रही है, हदय में हुई शक्तियां इस कबमें हमेशाके लिये असमयमें आवेगों और जोशका तूफान आ रहा है, दिमारामें दफ़नादी गई। आज हम पर्देकी इस चहारदिवारी विचारों और तकोंका बवण्डर मचा है पर अभी के अन्दर बन्द होकर एक कैदीकी अवस्थासे किसी उसमें इतना आत्म-विश्वास पैदा नहीं हुआ कि भी प्रकार अच्छी नहीं हैं। हमें न संसारकी वि- वह इस जालिम दुश्मनके स्त्रिलाफ जेहाद खड़ाकर चित्र लीलाओंकी जानकारी है और न भविष्यकी दे। उसकी नैतिकतामें वह फफकारती ज्वाला नहीं कल्पनाएँ करनेका मौका । यदि सच कहा जाय तो जो पल मारते ही उसकी झूठी मर्यादाओंको जलाकहना होगा कि आज हम मानव शरीर धारण कर खाक करदे। कर भी पशुओंस किमी भी दृष्टिसे श्रेष्ठ नहीं हैं। पर यहाँ मैं यह बात स्पष्ट कह देना चाहती हूँ ___जब शास्त्रों और धर्मग्रंथों में यह लिखा पाती कि ये मर्यादाएँ बिल्कुल बिना सर पैरकी हैं । वर्षों हूँ कि स्त्री पतिके कार्यों में भाग ले, उसे अपनी पहले किन्हीं खास उद्देश्योंको पाने के लिये यह गुत्थियोंको सुलझानेमें सहयोग दे तब यह बिल्कुल प्रथा चल पड़ी थी किन्तु आज न तो वे उद्देश्य ही ही नहीं समझमें आता कि वह कबके भीतर रहकर हमारे दृष्टिपथमें रहे हैं और न वह परिस्थिति । जीवनके कौनसे पहलुओंसे जानकारी रख सकती मगर जिस प्रकार प्राणशक्ति निकल जानेपर माहै। वर्तमानकी क्या आर्थिक और क्या राजनीतिक, नवका विकृत अस्थिपञ्जर रह जाता है वैसे ही क्या सामाजिक और क्या धार्मिक सभी गत्थियां यह पर्दा स्त्रियोंके लिये कब्र बन रहा है। इस पर्देका हमारे ज्ञानके लिये एवरेस्ट के समान अलंध्य हैं परिणाम आज-कल तो यही हो रहा है कि हमारी तब उन्हें सुलझाने में सहयोग देनेका मवाल तो माताएँ और बहनें अपने स्वामियोंके साथ खेलनेलाखों कोस दूर रहा। हम नहीं समझ पातीं इस पढ़नेवाले सभ्य पुरुषोंको देख नहीं पाती, उनकी चहारदिवारीके भीतर बन्द कर हमारे प्राणाधार उच्च विचारधाराका लाभ नहीं उठा पातीं पर ये ही पति हमारी निर्बलता और बीमारियोंको बढ़ाकर 'असूर्य पश्याएं' कहारों और नौकरोंके गन्दे और कौनसा फायदा उठाते हैं ? इस प्रकार हमें सदाके काले कलूटे अंगोंको खुली आँखों देखती हैं, उनकी लिये व्याधियोंका घर बनाकर क्या हमारे प्रिय नीच प्रवृतियोंकी क्रीड़ा पर कभी कभी मनोविनोद

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