Book Title: Anekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 749
________________ वर्ष २, किरण १२] मनुष्योंमें उच्चता-नीचता क्यों ? ६७६ को बना लेता है, इसीलिये बड़ी भक्तिके साथ दूसरे पाये हैं-किसाधुका जीवन सार्वजनिक जीवन बन जाता मनुष्य अपना अहोभाग्य समझकर उसकी जीवन-संबन्धी है और नीचवृत्ति वाला मनुष्य अपने पर्वजीवन में नीच संभवित अावश्यकताओंकी पूर्ति किया करते हैं, उसका वृत्ति के कारण सर्व साधारण लोगोंकी निगाहमें गिरा कर्तव्य केवल यह है कि वह अपने जीवनसंबन्धी हुश्रा रहता है, इसलिये उसके जीवनका सर्वसाधारणके संभवित श्रावश्यकताओंका दूसरे मनुष्योको ज्ञान लिये श्रादर्श बन जाना कुछ कठिन-सा मालूम पड़ता है करानेके लिये मूक प्रयत्न करता है । यह प्रयत्न ही उस- और जीवनकी श्रादर्शताके अभावमें उसके प्रति सर्वके (साधुके ) जीवन-संबन्धी आवश्यकताअोंकी पूर्तिमें साधारणकी ऐमी भक्ति पैदा होना कठिन है, जिसके निमित्त होनेके कारण 'वृत्ति' शब्दसे कहा गया है। आधार पर वह अपनी शास्त्रसंमत स्वाभिमानपूर्ण माधुकी यह वृत्ति आगममें प्रतिपादित चर्याविधानके वृत्ति कायम रख सके, इसीलिये चरणानुयोग नीचवृत्ति अनुसार बहुत ही स्वाभिमानपूर्ण हुआ करती है, वालोको साधुदीक्षाका निषेध करता है; लेकिन, जैसा यही कारण है कि साधुको (छ। गुणस्थानवी जीवको) कि श्रागे बतलाया जायगा। नीचवृत्ति वाले मनुष्य भी उच्चगोत्री बतलाया गया है। बाकी पहले गुणस्थानसे वृत्ति बदल कर गोत्र परिवर्तन करके अपने गाईस्थ्य लेकर पंचम गुणस्थान तकके जीवोंकी वृत्ति जीवनमें ही सर्वसाधारण लोगोंकी निगाहमें यदि उस ऊपर कहे अनसार उच्च और नीच दोनों प्रकारकी समझे जाने लगते है तो ऐसे मनुष्योंके लिये चरणानुहो सकती है इसलिये वे दोनों गोत्र वाले बतलाये गये योग भी दीक्षाका निषेध नहीं करता है, इसलिये चरहैं । इसका मतलब यह है कि एक नीच वृत्ति वाला गानुयोगका करणानुयोगके साथ कोई विरोध भी नहीं मनुष्य भी हिंसादि पंच पापोंका एक देश त्याग करके रहता; क्योंकि एक नीचगोत्री मनुष्यको अपने पंचम गुणस्थान तक पहुँच सकता है। श्रागे वह क्यों वर्तमान भवमें साधु बननेका हक करणानुयोगकी तरह नहीं बढ़ सकता इसका कारण यह है कि छहागुणस्थान चरणानुयोग भी देता है। तात्पर्य यह है कि जब साधवर्ती जीवकी अनिवार्य परिस्थिति इस प्रकारकी हो का जीवन लौकिक जीवन है और वह सर्वसाधारण के जाया करती है कि वहाँ पर नीच वृत्तिकी संभावना ही लिये प्रादर्शरूप है तो लोकव्यवहारमें उसकी प्रतिष्ठा नहीं रहती है । तालर्य यह है कि कोई नीच वृत्ति वाला कायम रहना ही चाहिये, इमलिये साधुत्व जिस तरहसे मनुष्य यदि साधु होगा तो उसकी वह नीच वृत्ति अपने लोकमें प्रतिष्ठित रह सकता है उस तरहकी व्यवस्था पाप छूट जायगी, यह करणानुयोगकी पद्धति है। चरणानुयोगको निगाहमें रखकर द्रव्य, क्षेत्र, काल और चरणानुयोगकी पद्धतिमें इससे कुछ विशेषता है, वह भावके अनुसार चरणानुयोग प्रतिपादित करता है। बतलाताहै कि एक नीच वृत्ति वाला मनुष्य अपने इतना अवश्य है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके वर्तमान भवमें साधु नहीं बन सकता है, वह अधिकसे अनुसार चरणानुयोगकी व्यवस्था बदलती रहती है और अधिक पुरुषार्थ करेगा तो देशव्रती श्रावक ही बन करणानुयोगकी व्यवस्था सदा एकरूप ही रहा करती सकेगा। इसका कारण यह है-जैसाकि हम पहिले बतला है। (शेष अगली किरणमें) wered Before

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