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अनेकान्त
अपने पेशेको करते हुए समय पड़ने पर मरने की संभावना होने पर भी भंगीका काम करनेके लिये तैयार न हो तो भी ये दोनों नीचगोत्री ही माने जाते हैं उच्चगोत्री नहीं, इतना अवश्य है कि उस समय मानसिक परिगति स्वाभिमानपूर्ण होने की वजहसे इनके उच्चगोत्रकर्म का ही बन्ध होगा ।
किस गुणस्थानमें कौनसे गोत्रकर्मका उदय रहता है ?
ऊपरके कथनसे यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि जीवकी दीनता और क्रूरतापूर्णवृत्ति नीचगोत्रकर्मके उदयसे होती है और स्वाभिमानपूर्ण वृति उच्चगोत्रकर्मके उदयसे होती है, इसलिये जिस गुणस्थान में जो वृत्ति पायी जाती हो उस गुणस्थान में उसी गोत्रकर्मका उदय समझना चाहिये ।
आश्विन, वीर - निर्वाण सं० २४६५
जीवनकी साधारण महत्ता है, यही कारण है कि ऐसे लोकोत्तर जीवनवाले जीवोंके उच्चगोत्रकर्मका ही उदय माना गया है । लोकोत्तर जीवन सातवें गुणस्थान से प्रारंभ होता है और तेरहवें गुणस्थानवर्ती जीव पूर्ण लोकोत्तर - जीवनवाले हो जाते हैं। इस प्रकार सातवें गुणस्थानसे चौदहवें गुणस्थान तकके जीवोंके उच्चगोत्रकर्मका ही उदय बतलाया गया है ÷ ।
छडे गुणस्थानवर्ती जीवोंका जीवन यद्यपि लौकिक जीवन है, इसलिये उनमें लौकिक जीवन संबन्धी यथायोग्य व्यवहार पाये जाते हैं परन्तु उनका जीवन इतना सार्वजनिक होजाता है कि बिना स्वाभिमान पूर्ण वृत्तिके वे जीव उस गुणस्थानमें स्थित ही नहीं रह सकते हैं। तात्पर्य यह है कि छागुणस्थानवर्ती जीव (मनुष्य) माधु कहलाता है, वह हम जैसे गृहस्थ मनुष्योंके लिये श्रादर्श होता है; क्योंकि लौकिक जीवनकी उन्नतिकी पराकाष्ठा इसके हुश्रा करती है, इसलिये इसके (साधुके) जीवन में दीनता व क्रूरतापूर्णवृत्ति संभवित नहीं है, यहां तक कि जो वृत्तिस्वाभिमान पूर्ण होते हुए भी आरम्भ पूर्ण होती है उस वृत्तिसे भी वह परे रहता है । वह पूर्णसंगमी और सभी जीवोंमें पूर्ण दयावान अपने जीवन
मुक्त जीव शरीर के संयोगरूप जीवनसे रहित हैं, इसलिये किसी भी प्रकारकी वृत्ति उनके नहीं है और यही कारण है कि वृत्तिका कारणभूत गोत्रकर्मका संबन्ध भी मुक्त जीवोंके नहीं माना गया है । यद्यपि समस्त संसारी जीवोंके गोत्रकर्मका उदय बतलाया गया है। परन्तु जिन जीवोंका लौकिक जीवनसे संबन्ध छूट जाता है अर्थात् लोकोत्तर जीवन बन जाता है उनके शरीरका संयोगरूप जीवनका सद्भाव रहते हुए भी लौकिक जीवन के सभी व्यवहार ही नष्ट हो जाते हैं । यह उनके
*यदि नीचगोत्री ही माने जाते हैं "तो जिस जीवकी वृत्ति स्वाभिमानपूर्ण होती है वह जीव उपगोत्री माना जाता है" इस लेखकजीके वाक्यके साथ उसका विरोध भाता है ।
सम्पादक
+ परन्तु यह नियम कौनसे आगम ग्रन्थमें दिया है ऐसा कहीं भी स्पष्ट करके नहीं बतलाया गया, जिसके बतलानेकी ज़रूरत थी । -सम्पादक
- जब लेखकजीने खाने-पीने आदि सम्बन्धी लौकिक प्राचरणरूप वृत्तिको ही गोत्रकर्मका कार्य बतलाया है और लिखा है कि "इस ( वृत्ति) के द्वारा ही जीवके उच्चगोत्री व नीचगोत्री होनेका निर्णय होता है" और वह वृत्ति जीवनके सभी व्यवहार नष्ट होजानेके कारण इन गुणस्थानोंमें है नहीं, तब इन गुणस्थानों में उपगोत्रका उदय बतलाना कैसे संगत हो सकता है ? इससे पूर्व कथमके साथ विरोध जाता है, एक नियम नहीं रहता और इच्छानुकूल कुछ खींचातानी जैसी बात जान पड़ती है।
--सम्पादक