Book Title: Anekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 730
________________ अनेकान्त ५ . ० [अाश्विन, वीर-निर्वाण स०२४६५ [ दो] कनकश्रीके अधिकारकी वस्तु बन जायगा, इसमें नवागता दुल्हनका नाम था-कनकश्री! जैसी सन्देह नहीं !' । ही कनकश्रीने गृह-प्रवेश किया कि जिनदत्ताको इसके बाद-बुढ़ियाकी स्वीकारता और विवाऐसा लगा, जैसे सफल मनोरथ पा लिया हो! होत्सव दोनों एक-साथही लोगोंके सामने आए ! लेकिन कनकश्रीने समझा उसे शूल ! स्वाभाविक ..बहिन ! आजसे इस घरको अपनाही 'घर' ही था--साथीकी तलाश दुखके लिए होती है, समझो ! तुम्हारे पति बड़े सरल स्वभावके हैं, मौसुखके लिए नहीं ! फिर स्त्री-हृदयकी ईर्षा, क्या जीले भी खूब हैं-वह! मेरी आन्तरिक अभिलाषा पूछना उसका ? अवश्य ही, एक दूसरीका गाढ़ है-तुम दोनों प्रसन्न रह कर अनेकों वर्ष जियो ! परिचय न था ! तुम्हारी भरी-गोद देख सकू, मैं इन आखोंसे ! कनकश्रीकी माँ--'बन्धश्री'--राजगृहकी ही -जिनदत्ताने स-प्रेम कनकश्रीसे कहा ! लेकिन निवासिनी थी ! परिवार भरमें दो ही प्राणी थे-- वह रही चुप, आभार प्रदर्शक एक-शब्द भी उसके माँ-बेटी ! जिनदत्ताने रखा अपने पतिके लिए मुँह से न निकला ! किन्तु जिनदत्ताने इसे महसूस कनकश्रीका प्रस्ताव' ! बुढ़ियाको जैसे मुंह-माँगी तक न किया, अगर कुछ समझा भी तो निरामुराद मिली ! तृषातुरके पास जलाशय आया ! भोलापन ! ऐसा सुयोग भला वह चूक सकती थी ? उमका फिर कहने लगी वह–'और मेरा, तुम्हारे पति दुनियावी तर्जुबा-साँसारिक अनभव---काकी पु- से, तुम्हारे घरसे प्रायः सम्बन्ध विच्छेद ! सुबह राना था ? उसने सोचा-'लड़कीका पर-गह जाना और शाम केवल भोजन-निवृत्तिके लिये आया निश्चित ही है ! और अभी, निःप्रयत्न ही उसे करूँगी ! बाकी समय 'देवालय' में प्रभु-पद शरण समृद्धशाली 'वर' मिल रहा है ! पुत्री सुखी रहेगी, में-बिताऊँगी !' यही चाहिए भी ! थोड़ी उम्र जरा अधिक है, पर मौन ! इससे क्या ? घरमें स्नुराक भी तो है ?--ग़रीबोंके इस बार जिनदत्ताने कनकश्रीके मुखकी ओर नौजवान भी बरौर स्खुराकके बूढ़े दिखाई देते हैं ! कुछ खोजनेकी दृष्टि से देखा । पर मुग्ध-हृदय फिर रह जाती है पहली पत्नीकी बात ! सो वह भोली भी भ्रम रहित न हो सका, उसने समझी-नारीस्वयं ही कह रही है ! फिर शंकाके लिए स्थान सुलभ ब्रीड़ा! नहीं ! इसके बाद भी है तो वह पुरुष-हृदय ही न ? जो सर्वदा नवीनताकी खोजमें ही विवेक हीन दिन-पर-दिन निकलते चले गए ! बहुत-दिन बना रहना जानता है, जो सौन्दर्य शिखापर शलभ बाद एक दिन !की भाति प्राण चढ़ाने तकमें पीछे रहना' नहीं बन्धुश्रीने प्रवेश किया । कनकश्रीने जैसे ही जानता ! अवश्य ही, पूर्व पत्नीको कनकश्रीके 'माँ'को आती देखा, तो स्वागतार्थ उठ खड़ी हुई ! लिए जगह खाली कर देनी होगी ! प्रेम केवल स-सन्मान उच्चासन पर बैठाया !... बुढ़ियाने

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