Book Title: Anekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 742
________________ अनेकान्त [आश्विन, वीर-निर्वाण सं०२४६५ गोत्रकर्म और उसका कार्य गोत्रकर्मका कार्य बतलाया है और जिस कुल में जीव पैदा विद्वानोंका आज जो गोत्रकर्मके विषयमें विवाद है होता है उस कुलको इस कार्यमें गोत्रकर्मका सहायक वह उसके अस्तित्वका विवाद नहीं है, इसका कारण निमित्त बतलाया गया है । इसी सहायक निमित्तताकी यही मालूम पड़ता है कि यदि सर्वज्ञ-कथित होनेसे वजहसे ही "अन्नं वै प्राणाः" की तरह कारणमें कार्यज्ञानावरणादि कर्मोंका अस्तित्व स्वीकार किया जा सकता का उपचार करके राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक, सर्वार्थहै तो सर्वज्ञ-कथित होनसे गोत्रकर्मके अस्तित्वमें भी अर्थ-जो जीव जिस कुलमें पैदा होता है उस विवाद उठानेकी गुंजाइश नहीं है । धवल * सिद्धान्तमें कुल में होनेवाले लौकिक आचरण (वृत्ति) के अनुसार गोत्रकर्मके अस्तित्वको स्वीकार करनेमें यही बात प्रमाण वह जिस प्रकारके लौकिक आचरण (वृत्ति) को रूपसे उपस्थित की गई है, जिसका समर्थन श्रीयुत अपनाता है वह गोत्रकर्मका कार्य है। मुख्तार सा. ने "उच्चगोत्रका व्यवहार कहाँ ?' शीर्षक इसमें जीवके आचरणविशेष अर्थात् लौकिक लेखमें किया है। आचरण ( वृत्ति) को गोत्रकर्मका कार्य और कुलगत जीवके साथ संबन्ध होनेसे कार्मण वर्गणाकी जो आचरणको उसका सहायक निमित स्पष्ट रूपसे बतपर्यायविशेषरूप परिणति में होती है उसीका नाम कर्म लाया है। इसी प्राशयको निम्न गाथांश भी प्रगट करते है । गोत्रकर्म इसी कर्मका एक भेद है और इसका कार्य जीवकी श्राचरण विशेषरूप प्रवृत्ति कराना है-तात्पर्य "भवमस्सिय णीचुच्चं" (कर्म• गा० १८) यह कि कार्माण वर्गणारूप पुद्गलस्कंध आगममें प्रति- "उच्चस्सरचं देणीचं णीचस्स होदिणोकम्मं (गा०४) पादित विशेष निमित्तोंकी महकारितासे जीवके साथ इन दोनों गाथांशोंमें वर्णित नीच आचरण और संबन्ध करके गोत्रकर्मरूप परिणत हो जाते हैं और गोत्र उच्च पाचरण क्रमसे नीचगोत्रकर्म और उच्चगोत्रकर्मके कर्मरूप परिणत हुए वे ही पुद्गलस्कन्ध बाह्य निमित्तों- कार्य हैं तथा नीचगोत्रकर्म और उच्चगोत्रकर्म गोत्रकर्मकी अनुकूलतापूर्वक जीवकी आचरणविशेषरूप प्रवृत्ति के ही भेद हैं इसलिये इनका भी यही प्राशय निकलता कराने लगते हैं । कर्मकांडामें जीवकी इस प्रवृत्तिको ही है कि जीक्का भाचरणविशेष ही गोत्रकर्मका कार्य है और नरकादि कुल ब उन कुलोंमें पैदा हुमा जीवका *" न (गोत्रकर्माभावः), जिनवचनस्यासत्यत्वविरोधात्" शरीर इसमें सहायक निमित्त हैं। (मुख्तार सा० के "उच्चगोत्रका व्यवहार कहाँ ?" इस टिप्पणी व मूल लेखमें जो 'कुल' शब्द आया शीर्षक लेखसे उद्धृत) है उससे नोकर्मवर्गणाके भेदरूप कुलोंको नहीं ग्रहण कार्माणवर्गणामें जीवके लिये फल देने रूप करना चाहिये किन्तु सामान्यतया नरक, तियंच, शक्तियोंका पैदा होजाना कार्माणवर्गणाकी पर्याय वि. मनुष्य, देव इन चारों गतियोंको व विशेषतया इन शेषरूप परिणति' कहलाती है। गतियों में जीवके माचरणमें निमित्तभूत यथासंभव जो + "संताणकमेणागयजीवायरणस्स गोदमिविसरणा" जातियाँ कायम हैं उनको 'कुल' शब्दसे ग्रहण करना (कर्म• गा०१३) चाहिये। यह पागे स्पष्ट किया जायगा।

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