Book Title: Anekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 733
________________ वर्ष २, किरण १२] अतीतके पृष्ठोंसे ६६३ करलूँ !, कापालिकके विद्या-अहंकारने व्यक्त -कापालिकने साग्रह प्रार्थना की ! किया ! माधककी अनुरोध रक्षाका भार लेकर बैताली बुढ़िया खुशीके मारे बोल भी न सकी ! फिर चली,-निरपराधकी हत्याके लिए.... ! फिर वही बात, वही प्रसंग ! जिनदत्ताके श्मशानमें ! पातीव्रत-धर्म और प्रभु-भक्तिकी प्रखरताके मन्मुख चतुर्दशीकी काली डरावनी रात ! नर-मुड ! देवीकी सारी शक्ति निर्जीव होगई ! उमने हाथ अस्थि-खण्ड !! और धधकती हुई चिताएँ !!! उठाये, न उठे ! कदम बढ़ाना चाहा, वह भी नहीं! घृणित-भस्म, पल-भक्षी-पशु, और विकट मन्नाटा! लौट आई आखिर हार कर !... इसके बाद भी, मध्य-रात्रि !!! कापालिककी व्यग्रता उधर फिर बढ़ी, फिर कापालिक आसन मार कर बैठ गया, देवीकी उमने देवीका आह्वान किया ! वह आई, इस अाराधनामें निर्भय और प्रसन्न-मुख ! जैमी कि बार उसके साथ क्रोध था, झंझलाहट थी; और उसे आशा थी, आराधना विफल न हुई, बैताली माधककी मूर्खताके प्रति अरुचि ! आई !"कुछ ही देर बाद ! 'क्या कहता है-बोल ?'–बैतालीने झल्लाकर ___ कापालिकने सिर झुकाकर अभिवादन किया। तीग्वे-स्वरमें कहा ! फिर बोला-'मा ! ऋषभदासकी प्रथम पत्नी- कापालिककी मानों घिगी बंध गई. होश जिनदत्ता--का प्राणान्त करदो, यही चाहता हूँ !' हवास गुम ! घबड़ाकर बोला___ वह चली गई ! अपने साधककी इच्छा तृप्तिके दोनोंमें जो दुष्ट हो, उसे मार दोहेतु जिनदत्ताके बधके लिए! मा!' जिनदत्ता थी बे खबर, इन मब प्रपंचोंमे ! देवी चली-कनकश्रीके शयनागारकी तरफ ! उमे पता तक नहीं किस प्रकार बैताली उमके क्रोधमे विक्षब्ध ! और दूसरे ही क्षण कनकश्रीके बध के लिए आई, और उसके धर्म-प्रभावमे बगैर रक्तमे रञ्जित खड़ग लिए बाहर निकली ! प्राणान्त किए ही लौट गई !... उधर ! कापालिकको इमबार अधिक प्रतीक्षा उधर ! कापालिकने पुनःदेवीकी आराधना की! न करनी पड़ो ! उमने बैतालीको शीघ्र ही वापम वह आई ! बोली लौटते देखा ! 'क्या चाहता है ? __ 'देख !'-रक्त-विन्दुओंको तीक्ष्ण खड़गसे 'जिनदत्ताका बध!'–कापालिकने उत्तर दिया! पोंछते हुए बैनालीने कहा-'मारदी गई !' नहीं होगा मुझसे ! उसका धर्म-तेज टिकने ही नहीं देता मुझे ! वह धर्मकी देवी है, छोड़दे इठा - [चार] ग्रह !'-बैतालीने परिस्थितिको स्पष्ट किया ! 'सच...?' 'मा ! जैसे भी हो इसे तो करो ही!'' 'विश्वास करो-मा ! मैं सचही कह रहा हूँ

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