Book Title: Anekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 729
________________ वर्ष २, किरण १२ ] अतीतके पृष्ठोंसे ६५६ करना चाहिए ?'-कि......... सुहावना नव-जात शिशु पूर्णताका सन्देश सुनादो गोल-गोल आँसू ! येगा ! तभी..........! पारक्त कपोल !! विह्वला-सी जिनदत्ता उन्मीलित नेत्रोंसे देखती अधरोंका अस्वाभाविक स्पन्दन !!! हुई, क्षण-भरके लिए रुकी ! फिर-- पूंजीपतिका हृदय नवनीत बनने लगा ! तभी मेरी त्रुटि मुझे भूल सकेगी, तभी खोजने लगे रुधनकी गहराईमें स्वकर्तव्यकी रूप- मेरा कलंक मुझे धुला-सा प्रतीत होगा ! और तभी रेखा ! उनके विचार बाँध टी नदीकी भाँति मेरा बंध्यत्व पराजित हो सकेगा ! इसके लिए मैं निखरे जा रहे थे ! तभी अधिकार ही नहीं, नारीत्व तककी आहुति देनेके 'मेरी एक छोटी-सी 'मांग' भी स्वीकृति नहीं लिए प्रस्तुत हूँ !'--जिनदत्ता -पतिव्रता, धर्माचापाती, इससे अधिक और दुर्भाग्य क्या होगा- रिणी, विदुषी जिनदत्ता--ने अपनी आन्तरिकतामेरा ?'-जिनदत्ताके सुन्दराकार मुखके द्वारा को समक्ष रखा ! हृदयस्थ-पीड़ा बोली! .."किन्तु प्रिये ! ऐसा पाणिग्रहण, पाणिग्रहण _ 'सुन्दरी ! मैं यदि तुम्हारी प्रेरणा-रक्षाके लिए नहीं, बन्धन है ! जिसमें एक निर्मुक्त भोली बालिका द्वितीय विवाह कर भी लूं तो क्या तुम सोचती हो, का जीवन, अनमेल साथीके विकसित-जीवनके यह मेरा स्तुत्य-कृत्य होगा ? कदापि नहीं ! वह साथ निर्दयता-पूर्वक बाँध दिया जाता है ! इसका तुम्हारी गहरी-भूल होगी ! जो हमारे-तुम्हारे दोनों परिणाम---विषाक्त परिणाम--भविष्यके गहनके लिए घातक सिद्ध होगी, विष सिद्ध होगी। पटलोंमें छिपा रहनेपर भी, मुझे वर्तमानकी तरह किसीका सत्वापहरण कर, किसीकी रस भरी दिखाई दे रहा है ! मैं चाहता हूँ.. तुम अपनी दुनियाँको उजाड़कर, कोई सुखकी नींद सो सके प्रेरणाको वापिस लेलो, मुझे भाग्य-निर्णय पर यह रौर मुमकिन है !...'-ऋषभदासकी दृढ़ताने छोड़ दो!' बोलते-बोलते गंभीर रूप धारण कर लिया ! लेकिन क्षणिक स्तब्धता !!! जिनदत्ताके हृदयपर उसका कुछ प्रभाव न हुआ, 'जीवन-मूल ! इतने निष्ठुर न बनो ! न ठुका आखिर था न स्त्री हठ ? रात्रो मेरी प्रेम-प्रेरणाको ! मैं तुमसे भिक्षा माँगती वह बोली--'किसकी दुनियाँमें प्रलय हूँ-प्यारे ! कहो.''कहो, बस, कहदो-'हाँ!' मचती है--इससे ? किसका अधिकार अपहरण -और तभी ऋषभदासके असमंजसमें पड़े होता है ? मैंने सोच लिया--'किसीका भी नहीं!' हुए हृदयसे निकलती है, प्रेमसे ओत-प्रोत, गंभीर अगर होता भी है तो सिर्फ मेरा ! जिसकी मुझे किन्तु मीठी'परवाह' नही ! इसके बाद--इस उजड़े नन्दनकाननमें बसन्तकी सुरभि महकेगी, तमसान्वितसदनमें प्राशाका दीपक प्रज्वलित होगा! चांद-सा

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