Book Title: Anekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 716
________________ ६४६ अनेकान्त [श्राश्विन, वीर-निर्वाण सं० २४६५ रोटी नहीं खाने, किसी जाति वालेसे बेटी म्यवहार नहीं है कि वीरमगवानके धर्ममें जातिभेदको कोई भी स्थान करने, स्नान करने, बदन साफ रखने, कपड़े निकालकर नहीं है, जैसा कि आदिपुराण, उत्तरपुराण, पद्मपुराण, चौमें बैठकर रोटी खाने, चौकेके अन्य भी अनेक बाबा धर्म परीक्षा, वारांगचरित्र और प्रमेय कमलमार्तण्डके नियमों के पालनेको ही महाधर्म समझते हैं, जो इन कथनोंको दिखाकर और उनके श्लोक पेश करके अनेकान्त नियमोंको पालन करता है वह ही धर्मात्मा और जो किरण ८ वर्ष २ में सिद्ध किया गया है। इस ही प्रकार किचित्मात्र भी नियम भंग करता है वह ही धर्मी पापी रखकरण्डश्रावकाचार, चारित्रपाहुइ स्वामिकार्तिकेयानु और पतित समझा जाता है। नेकी, बदी, नेकचलनी, प्रेक्षाके श्लोक देकर अनेकान्त वर्ष २ किरण ५ में यह बदचलनी पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया जाता है; यहाँ सिद्ध किया है कि जातिभेद सम्यक्त्वका घातक है। इस तक कि कोई चाहे कितना ही दुराचारी हो परन्तु जाति ही प्रकार अनेकान्त वर्ष २ किरण ३ में रत्नकरण्ड भेद और चौकेके यह सब नियम पालता हो तो वह श्रावकाचार, सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक धर्मसे पतित नहीं है, और जो पूरा सदाचारी है परन्तु जैसे महान ग्रंथोंके द्वारा यह दिखाया है कि जैन धर्मको इन नियमोंको भंग करता है तो वह अधर्मी और पापी शारीरिक शुद्धि अशुद्धिसे कुछ मतलब नहीं है, यहाँ है। ब्राह्मणोंकी अनेक जातियोंमें मांस खाना उचित तक कि उपवास जैसी धर्मक्रियामें स्नान करना मना है, उनके चौकमें मांस पकते हुये भी दसरी जातिका बताया है, स्नान करनेको भोगोपभोग परिमाण व्रतमे कोई आदमी जिसके हाथका वह पानी पीते हों परन्तु भी एक प्रकारका भोग बताकर त्याग करनेका उपदेश रोटी न खाते हों, यदि उनके चौकेकी धरती भी देगा किया है, पद्मनंदिपंचविंशतिकामें तो स्नानको साक्षात् नो उनका चौका भष्ट हो जायगा। परन्तु मांस पकनेसे ही महाम् हिंसा सिद्ध किया है। जैन शाखोंमें तो भ्रष्ट नहीं होगा, इसही प्रकार हिन्दुस्तानकी हजारों अन्तरात्मा की शुद्धिको ही वास्तविक शुद्धि बताया है, जातियोंके इस चूल्हे चौकेके विषय में अलग २ नियम हैं दशलक्षण धर्ममें शौच भी एक धर्म है। जिसका अर्थ और फिर देश-देशके नियम भी एक दूसरेसे नहीं मिलते लोभ न करना ही किया है। सुख प्राप्त करानेवाला हैं, तो भी प्रत्येक जाति और प्रत्येक देश अपने लिये सातावेदनीय जो कर्म है उसकी उत्पत्तिका कारण दयाअपने ही नियमोंको ईश्वरीय नियम मानते हैं और शौच और शांति आदि बताया है, यहाँ भी शौचका उन ही के पालनको धर्म और भंग करनेको अधर्म अर्थ लोभका न होना ही कहा है; इत्यादिक सर्वत्र जानते हैं। मनकी शुद्धिको ही धर्म ठहराया है। पाठकोंसे निवेदन वीर भगवान्का धर्म बिल्कुल ही इसके प्रतिकल है. है कि वे जैन धर्मका वास्तविक स्वरूप जाननेके लिये वह इन सब ही लौकिक नियमों, विधि विधानों, रू- इन सब ही लेखोंको जरूर पढ़ें, फिर उनको जो सत्य दियों और रीति रिवाजोंको लौकिक मानका सखसे मालूम पड़े उसको ग्रहण करें और झूठ को त्यागें। नौकिक जीवन व्यतीत करनेके वास्ते पालनेको मना अन्तमें पाठकोंसे प्रेरणा की जाती है कि वीरनहीं करता है। किन्तु इनको धार्मिक नियम मानकर प्रभके वस्तुस्वभावी वैज्ञानिकधर्म और अन्य मतियोंकी इनके पालनसे धर्मपालन होना और न पालनेसे अधर्म ईश्वरीय राज्यमाशा वा रूदि धर्मकी तुलना अच्छी और पाप हो जामा माननेको महा मिथ्यात्व और धर्म- तरहसे करके सत्य स्वाभाविक धर्मको अंगीकार करें का रूप बिगाड कर उसे विकृत करदेना ही बताता है और अन्य मतियोंके संगति और प्राबल्यसे जो कुछ जिमका फल पापके सिवाय और कुछ भी नहीं हो सकता अंश उनके धर्मका हमारेमें भागया हो और वस्तु स्वहै। वीरभगवान्के बताये धर्मका स्वरूप श्री प्राचार्योंके भावी धर्मसे मेल न खाता हो उसके त्यागने में जरा भी प्रन्थोंसे ही मालूम हो सकता है। उन्होंने अपने ग्रंथों में हिचकिचाहट न करें। भनेक जोरदार युक्तियों और प्रमाणोंसे यह सिद्ध किया

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