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वर्ष २, किरण १२]
वीर भगवानका वैज्ञानिक धर्म
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इस कारण यहाँके खोग धरती पर बैठकर कोई काम परन्तु वीर भगवान्का धर्म तो किसी राज्यशासनके नहीं कर सकते हैं । जुहार बदई भी खड़े होकर मेज़ पर निवम न होकर एकमात्र वस्तु स्वभाव पर ही निर्भर है, ही अपना सब काम करते हैं । इस ही कारण खाना भी जो सदाके लिये घटा है और हेतु प्रमाणकी कसौटी वहां जूते और भारी कपड़े पहने हुवे मेज़ पर ही खाया पर कसकर विज्ञानके द्वारा जिनकी सदा परीपाकी जाता है। हिन्दुस्तान बहुत गरम मुल्क है, यहां सब जासकती है। जो सांसारिक म्यवहारों और सामाजिक काम जूते उतारकर और धोती भादि बहुत हल्के कपड़े बंधनों पर निर्भर है। किन्तु एकमात्र जीवके परिणामों पहनकर धरती पर बैठकर ही किया जाता है, रोटी भी पर ही जिसकी नीव स्थित है। इस कारण वीतरागको इस ही कारण जूते उतार, धोती भादि हल्के कपड़े यह भी साफ २ बता देना पड़ा कि जैनी ऐसे सब ही पहन, धरती पर बैठकर ही खाया जाता है। इस ही बौकिक व्यवहारों और विधि विधानोंको अपना सकते प्रकार मरने जीने,ब्याह शादो पापसमें रोटी बेटी व्यव हैं, चाहे जैसे रीति रिवाजों पर चल सकते हैं जिनसे हार, मनुष्यों की जातियोंकी तक्रसीम, उनके अलग२ जीवात्माके स्वरूपके सच्चे श्रद्धानमें और हिंसा मठ काम, अलग २ अधिकार, सांसारिक व्यवहारके नियम, चोरी, कुशीन और परिग्रहरूप पाँच पापोंके त्यागमें देश देश और जाति २ के अलग २ ही होते हैं और फरक न पाता हो, अर्थात् जिन लौकिक व्यवहारोंसे परिस्थितिके अनुसार, राज परिवर्तन वा अन्य भनेक सम्यक्त और प्रतोंमें दूषण नहीं भाता है, वे चाहे जिस कारणोंसे, बदलते भी रहा करते हैं, पाम २ को प्रत्येक देशके, चाहे जिस जाति वा समाजके हों, उनपर चाहे समाजके नियम भी जुदे ही होते हैं और जरूरतके जिमतरह चला जावे, उससे धर्म में कोई बाधा नहीं अनसार समाजके द्वारा बदलते भी रहा करते हैं। पाती है। इन लौकिक व्यवहारों के अनुक्खन चलनेसे कभी दो समाजोंमें मित्रता होती है, और कभी बैर, देश, जाति, समाज वा कुल भाविका अपराधी भने ही इसहीसे उनके पापसके व्यवहार भी बदल जाते हैं। होता हो, परन्तु धर्मका अपराधी किसी तरह भी नहीं जो समाज बैरी समझी गई उसके हाथका पानी पीना होता है । धर्मका अपराधी वह तो बेशक हो जायगा तो क्या उससे बात करना तक पाप समझा जाता है। जो इन बौकिक ज्यवहारोंको धर्मके नियम मानकर यह ही व्यवहारिक नियम बहुत दिनों तक चालू रहनेसे अपने श्रद्धानको भ्रष्ट करेगा, जैन शासका यह वाक्य धर्मका स्वरूप धारण करके ईश्वरीय नियम बन जाते हैं खास तौरपर ध्यान देने योग्य है:और पोथी पत्रों में भी दर्ज हो जाते हैं।
सर्व एव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः । ईश्वरके राज्यमें वस्तुस्वभाव और प्रारम यदि पर यत्र सम्यक्त्वहानिर्न यत्र न व्रतदूषणम् ।। तो अधिक ध्यान होता ही नहीं है, जो कुछ होता है किसी किसी धर्ममें भाज का जाति भेव और वह ईश्वरके कोपसे बचनेका ही होता है । इसही कारण उसके कारण किसी किसी जातिमे घृणा करने, उनको लोग इन व्यवहारिक नियमोंको ही ईश्वरीय नियम धर्मसे वंचित रखने और किसी किसी जाति वालेको मान, इनके न पालनेको ईश्वरके कोपका कारण और जन्मसे ही ऊँचा समझ उसका पूजन किसी जाती वाले पाखने को उसकी प्रसन्नताके हेतु समझने लग जाते हैं। देहायका पानी नहीं पीने, किसी जाति बाजेके हाथकी