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अनेकान्त
[अाश्विन, वीर-निर्वाण सं०२४६५
दुष्ट और सजन, सब ही का भला चाहना, दुखियोंका पानेका कर्म बंधता है। मन वचन कायकी सरलता, दुख दूर करना, दान देना, गृहस्थी धर्मात्माओं और उत्तम परिणाम रहने, सबकी भलाई चाहनेसे, नेकीका त्यागी महात्मानों की जरूरतोंको पूरा करना, जीवहिंसा- व्यवहार रखनेसे अच्छी पर्याय पाने व अच्छी गनिमें से बचना,इन्द्रियों पर काबू रखना, विषयोंके वशमें जानेका बंध होता है। दूसरों की निन्दा और अपनी न होना, सबकी भलाईका ही ध्यान रखना, लोभका प्रशंसा करना, दूसरोंके अच्छे गुण विपाना और बुरे कम होना, दूसरों की सेवा करने ना दूसरोंके काम जाहिर करना, अपने बुरे गुणोंको विपाना और अच्छे मानेका भाव रम्बना, इससे सुखी रहनेका संस्कार पड़ता प्रगट करना, अपनी जाति और कुल मादिका घमंड है। किसी ज्ञानी की प्रशंसा सुनकर दुष्टभाव पैदा करना, करना, दूसरोंका तिरस्कार होता देख प्रसस होना, अपने ज्ञानको विपाना, दूसरोंको न बताना, दूसरोंकी दूसरोंका तिरस्कार करना, अपनी झूठी बड़ाई करना, ज्ञान प्राप्तिमें विघ्न डालना, ज्ञानके प्रचारमें रोक पैदा दूसरोंकी झूठी बुराई करना इससे नीच और निन्दित करना, किसी सच्चे ज्ञानकी बुराई करना, उसको ग़लत भव पानेका कर्म बंधता है। अपनी निन्दा और पराई ठहराना, इससे ज्ञानमें मंदता पानेका कर्म बंधता है। प्रशंसा करने, अभिमान छोड़ अपनी लघता प्रकट करने, सांसारिक कामों में बहुन ज़्यादा लगे रहनेसे, सांसारिक अपनी जाति कुल आदिका घमंड नहीं करने, अपने बस्तुभोंसे अधिक मोह रखने, हरवक्त संसारके ही सोच अच्छे अच्छे गुणोंकी भी प्रशंसा नहीं करनेसे, विनयवान फ्रिक में डूबे रहनेमे, अति दुःश्वदायी नरकमें रहनेका रहने, उदंडता नहीं करनेसे, ईर्ष्या नहीं करने, किसी बंध होता है। मायाचारसे तिर्यच आयका बंध होता की हँसी नहीं उड़ानेसे और तिरस्कार नहीं करनेसे है। थोड़ा प्रारंभ करने, सांसारिक वस्तुओंसे श्रोदा सन्मानयोग्य ऊँचा भव पानेका कर्म बंधता है। मोह रखने, घमंड न करने से, भन्न परिणामी होने, इस प्रकार वीर भगवान्ने स्पष्ट रीतिसे यह समसरल सीधा व्यवहार, मंद कषाय, और कोमल स्वभावके झाया है कि जीवोंके भले बुरे भावों और परिणामों के होनेसे मनुष्य पर्याय पाने योग्य कर्म बंधता है। हिमा अनुसार ही वस्तु स्वभावके मुवाधिक वैज्ञानिक रीनिसे झठ चोरी कामभोग और संसारकी वस्तुभोंका ममन्य ही भले बुरे कर्म बंधते रहते हैं और वस्तु स्वभावके इन पांच पापोंके पूर्ण रूप का मर्यादा रूप त्यागसे देव अनुसार प्रापसे पाप ही उनका फल भी मिलता रहता पर्याव पानेका बंध होता है। मनमें कुछ, बचनमें कुछ है। वीर भगवान्के इस महान उपदेशके कारण ही
और क्रियामें कुछ, इस प्रकारको कुटिलता, दूसरोंकी जगतमें यह प्रसिदि हो रही है कि फल नियतका ही झूठी बुराई करने, चंचल चित्त रहनेसे, माप तोलके मिलता है, बारा क्रियाका नहीं; जैसी बीयत होगी झूठे मौजार रखने, कम देने और ज्यादा लेने, खरी अर्थात् जैसे अंतरंग भाव होंगे वैसे ही फखकी प्राप्ति चोज़में खोटी मिलाकर देने, झूठी गवाही देने, दूसरोंकी होगी; वास क्रिया चाहे जैसी भी हो उससे कुछ न निन्दा अपनी प्रशंसा करने, दूसरोंका मखौल उड़ाने, होगा। तीवक्रोध, तीवमान, तीवलोम, बहुत मापाचार, पापकी देश देशके अलग अलग रीति रिवाज होते हैं। भाजीविका भादिसे खोटी गति में जाने और खोटी पर्याय बोल्प बहुत ठंडा मुल्क है। यहाँ बेहद बरक पदवी है,