Book Title: Anekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 711
________________ वीर भगवान्का वैज्ञानिक धर्म [ लेखक-बा० सूरजभानु वकील ] (गतांक से आगे) अपनी प्रकृतिके अनुकूल वा प्रतिकून जैसी भी खूराक दाता की कल्पना किये हुए हैं वे पाप करनेसे बचने के हम खाते हैं वैसा ही उसका अच्छा बुरा असर हमको स्थानमें बहुत करके उस फल दाताकी भेंट पूजामें ही भुगतना पड़ता है, किसी वस्तुके खानेसे प्रसन्नता होती लगे रहते हैं; इस ही कारण पापोंके दूर करनेके लिये है किसीसे दुख, किसीसे तन्दुरुस्ती और किसीसे बीमारी, अनेकानेक धर्मोकी उत्पत्ति होने पर भी पापोंकी कमी यहाँ तक कि ज़हर खानेसे मृत्यु तक हो जाय और नहीं होती है, किन्तु नवीन नवीन विधि विधानों के अनुकूल औषधि सेवन करनेसे भारीसे भारी रोग दूर हो द्वारा भेंट पूजा और स्तुति वन्दनाकी वृद्धि जल होजाती जाय । खानेकी इन वस्तुओंका असर आपसे भाप उन है। परन्तु वैज्ञानिक रीतिसे वस्तु स्वभावकी खोज करने वस्तुओं के स्वभावके कारण ही होता है । खाने वालेकी पर जब यह असली बात मालूम हो जाती है कि प्रत्येक शारीरिक प्रकृतिके साथ उन वस्तुओंके स्वभावका क्रियाका फल प्रापसे भापही निकलता रहता है, कोई सम्बन्ध होकर भला बुरा जो भी फल प्राप्त होता है फलदासा नहीं है जिसकी खुशामद की जावे तो अपनी वह आपसे आप ही होजाता है; इस फल प्राप्तिके लिये क्रियायों को शुभ म्यवस्थित करने, अपनी नियतोंको किसी दूसरी शक्तिकी ज़रूरत नहीं होती है। अगर हम दुरुस्त रखने और परिणामोंकी संभाल रखनेके सिवाय अपने कल्याणका और कोई रास्ता ही नहीं सूझता है, थकान होकर शरीर शिथिल होजाता है, बहुतही ज़्यादा यह दूसरी बात है कि हम अपनी कवायवश अर्थात् मेहनत की जाती है तो बुखार तक होजाता है । यह सब अपनी बिगड़ी हुई पादतके कारण अच्छी तरह समझते हमारी उस अनुचित मेहनतके फल स्वरूप प्रापसे आप बूझते हुए अपने कल्याणके रास्ते पर न चलें। मिरच खाने ही हो जाता है। इस ही प्रकार प्रत्येक समय जैसे हमारे की आदत वाला जिस प्रकार भाग्यों में दर्द होने पर भी भाव होते रहते हैं, जैसी हमारी नीयत होती है, जिस मिर्च खाता है, इस ही प्रकार विषय कषायोंकी प्रबलता प्रकार कषाय वाभड़क उठती है, उसका भी बंधन हमारे होनेके कारण विषय कपायोंको अत्यन्त हानिकर जानते ऊपर प्रापसे धापही होता रहता है और वह हमको हुए भी उनको नछोर सकें, परन्तु उनके हृदय में यह भुगतना पड़ता है। हमको हमारे कर्मोका फल देनेवाला ख्याल कभी न उठ सकेगा कि स्तुति वन्दना और भेंट कोई दूसरा ही है ऐसी कल्पना कर लेने पर तो हमको पूजासे अपने पापोंको पमा करा लेंगे। इस कारण पाप स्वार्थवश यह ख़याल पाना भी अनिवार्य हो जाता है करते भी उनको यह भय ज़रूर बना रहेगा कि इसका कि खुशामदसे, स्तुति-वन्दना करने से, दीन-हीन खोटा फल अवश्य भोगना पड़ेगा; इसलिये हर वक बनकर गिड़गिड़ाने और भेट चढ़ानेसे, अपने अपराध पापसे बचनेकी ही फिकर रहेगी और पापका फल समा करा लेंगे। इस ही कारण जो लोग कोई कर्मफल भोगनेके इस मटन निश्चयके कारण वे पापोंको जल्दी

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