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वर्ष २, किरण ११]
वीर भगवान्का वैज्ञानिक धर्म
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ही कारण जब ब्राह्मणोंका प्राबल्य हुआ तो उन्होंने उसके बाप दादा चाहे एक अक्षर भी न जानते हों, अपनेको ईश्वरका एजेन्ट ठहराकर अपनेको पुजवाना धर्मके स्वरूपसे बिल्कुल ही अनजान हो; यहाँ तक कि शुरू कर दिया; ईश्वरकी भेट पूजा आदि सब ब्राह्मणोंके संकल्प छुड़ाना भी न पाता हो, बिल्कुल ही मूर्ख गंवार द्वारा ही हो सकती है; ईश्वर ही को नहीं किन्तु सब ही हो, खेती, मजदूरी, मादिसे अपना पेट भरते चले मारहे देवी देवताओंकी भेंट पूजा ब्राह्मणों की भेंट पूजाके द्वारा हों परन्तु जाति उनको ब्राह्मण नामसे प्रसिद्ध चली ही की जा सकती है। यह ही नहीं किन्तु भरे हुए पाती हो, तो वे भी ईश्वर और देवी देवताओं के पके पितरोंकी गति भी ब्राह्मणोंको खिलावे और रुपया पैसा एजेन्ट और ईश्वरके समान पूज्य हैं। इसके विरुद्ध शूद्र माल असबाब देनेसे ही हो सकती है; खाना, पीना, जातिमें जन्म लेनेवालों और स्त्रियोंको धर्म साधनका खाट, खटोली, शय्या, वस्त्र, दूध पीनेको गौ, सवारीको कोई भी अधिकार नहीं है, सियोंके लिये तो अपने घोड़ा आदि जो भी ब्राह्मणको दिया जायगा वह सब पतिके मरनेपर उसके साथ जल भरना ही धर्म है, इस पितरोंको पहुँच जायगा; जो नहीं दिया जायगा उस ही ही में उनका कल्याण है। के लिये पितरोंको भटकते रहना पड़ेगा । परन्तु जो धर्मके नामपर इस प्रकारकी अंधाधुंदी चलती देखखाना ब्राह्मणोंको खिलाया जाता है उससे तो ब्राह्मणों कर कुछ मनचलोंने सोचा कि यद्यपि सदाचारकी धर्ममें का पेट भरता है और जो माल असबाब और गाय कोई अधिक पूछ नहीं है, मुख्य धर्म तो भेट पूजा और घोड़ा दिया जाता है वह भी सब ब्राह्मणोंके ही पास ब्राह्मण कुल में जन्म लेना ही है तो भी धर्मके कयनमें रहता है; वे ही उसको भोगते है तब उसका पितरोंको सदाचारका नाम ज़रूर आजाता है, जिससे कभी कभी पहुँचना कैसे माना जासकता हैं ? उत्तर-जब धर्मकी कुछ टोक पूछ भी होने लग जाती है, इस कारण इसकी बातोंमें बुद्धिका प्रवेश ही नहीं हो सकता है तब बुद्धि सदाचारकी जद ही मेट देनी चाहिये, जिससे कोई लड़ाना मूर्खता नहीं तो और क्या है । कल्याणके खटका ही बाकी न रहे, बुद्धिको तो धर्ममें दखल है ही इच्छुकों को तो अपनी स्त्री तक भी ब्राह्मणको दानमें दे नहीं, तब जो कुछ भी धर्मके नामपर कहा जायगा वह देनी चाहिये, चुनांचे बड़े बड़े राजाओं तक ने अपनी ही स्वीकार हो जायगा; ऐसा विचारकर उन्होंने मास रानियां ब्राह्मणोंको दान देकर ईश्वरकी प्रसन्नता प्राप्त मदिरा और मैथुन यह तीन तत्व धर्मके कायम किये । की है। ब्राह्मणोंको तो दंड देनेका भी राजाको अधि- अर्थात् मांस खाओ, शराब पौत्रो और स्त्री भोग करते कार नहीं है, क्योंकि वे राजासे ऊँचे हैं । जब ब्राह्मणका रहो, यह ही धर्म है, इसके सिवाय और कोई धर्म ही इतना ऊँचा दर्जा है, वे परमपिता परमेश्वर और सबही नहीं है । धर्मकी बातमें बुद्धि लड़ानेकी तो मनाही थी देवी देवताओंके एजेन्ट हैं तब उनके गुण क्या हैं और ही, इस कारण यह धर्म भी लोगोंको मान्य हुआ और उनकी पहचान क्या है ? उत्तर-उनमें किसी भी प्रकार खूब जोरसे चला । कहते हैं कि गुप्त रूपसे अब भी यह के गुण देखनेकी जरूरत नहीं है, धर्मकी नींव जाति पर धर्म प्रचलित है और अनेक देवी देवताओं की प्रसन्नता है, गुणपर नहीं है। इस कारण जिसने ब्राह्मण कहलाने व अनेक मन्त्रों तन्त्रों की सिद्धि इम ही धर्मके द्वारा वाले कुल में जन्म लिया है वह ही ब्राह्मण है, वह और होती है और बराबर की जा रही है।