Book Title: Anekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 685
________________ वर्ष २, किरण ११] जगत्सुंदरी-प्रयोगमाला ६२६ (नं. १३) में "जसइतिवाममुखिया मशिवं बाऊस" चुका है। संभव है इन्होंने अपने इस ग्रन्थको यश:इस वाक्यके द्वारा यह प्रकट किया है कि 'यशःकीर्ति कीर्ति के नामांकित किया हो और बादको संधियोम नामके मुनिने जो कुछ कहा है उसे जानकरके,' और 'जसकितिगामंकिए' के स्थान पर 'बसवित्तिविराए' दमरी ७७वीं गाथामें बतलाया है कि 'रावणादिकके बनगया हो। कुछ भी हो, जबतक विशेष खोज न हो कहे हुए निर्मल बालतंत्रको यशःकीर्ति मुनीश्वरसे जान- तबतक इस ग्रंथको उक्त जसकित्ति मुनिके शिष्य हरिपेण करके इस ग्रंथमें सं.क्षतरूपसे दिया गया है। इन दोनों का मानने में मुझे तो अभी कोई विशेष आपत्ति मालम गाथाश्रोंसे भी यह ग्रंथ यशःकीर्तिका बनाया हुश्रा नहीं होती। इससे पना-प्रतिके उक्त उल्लेखकी संगति भी मालम नहीं होता, बल्कि यह स्पष्ट जाना जाता है कि ग्रंथ ठीक बैठ जाती है, जो बहुत ही स्पष्ट शन्दोंमें अपने यशःकीर्तिके कथनानुसार तथा उनसे मालूमात करके उल्लेखको लिये हुए है। लिखा गया है, और इस तरह यह ग्रन्थ यशःकीर्तिमुनिके अब एक बात और रह जाती है, और वह है ग्रंथकी किमी शिष्यद्वारा रचा हुश्रा होना चाहिये-स्वयं यशः ४थी गाथामें 'धनेसर' (धनेश्वर ) गुरुका उल्लेख, कीर्ति के द्वारा रचा हश्रा नहीं। और इमलिये ग्रंथकी कुछ ये धनेश्वरगुरु कौन हैं इनका कुछ पता मालम नहीं मंधियों में,जिनका ग्रंथकी सब प्रतियों में एक प्राईर भी नहीं होता । संभव है ये ग्रन्थकारके कोई विद्याग रहे हो है, 'मुणिजसइति विरहए' पद सन्देहसे खाली नहीं है। अथवा इनकी किसी विशेषकृतिस उपकृत होकर ही _ 'यशःकीर्ति' नाम के जितने मुनियोका अभी तक ग्रन्थकार इन्हें अपना गुरु मानने लगा हो, और इसलिये पता चला है उनमेंसे गोपनन्दीके शिष्य तो ये यशःकीर्ति परम्परा गुरुकी कोटिमें श्राने हो; परन्तु दिगम्बरों में धने मालम नहीं होते; क्योंकि उनकी जिस विशेषताका श्वर सूरिका कोई स्पष्ट उल्लेख मरे देखने में नहीं पाया । श्रवणबेलगोल के ५५वें शिलालेखमें उल्लेख है उसके साथ हाँ, धनेश्वर यदि 'धनपालका पर्याय नाम हो तो 'धन इनका कुछ सम्बन्ध मालम नहीं होता। बाकीके जितने पाल'नामके एक प्रसिद्ध कवि भाव पदनकथा' के रच'यशःकीर्ति' हैं वे सब विक्रमकी १५वीं शताब्दी और यिता जरूर हुए हैं, जिनका समय बीवीं शताब्दि उसके बाद हुए हैं। जो यशःकीर्ति मुनि गुणकीर्ति अनुमान किया जाता है । परन्तु वताम्बम 'धनेश्वर' भट्टारक के शिष्य हुए हैं उनका समय १५वीं शताब्दीका नामके कई विद्वान श्राचार्य होगये हैं। एक धनेश्वरउत्तरार्ध और १६वीं शताब्दीका पूर्वार्ध है। उन्होंने सूरिने वि०) मंवत् १०६५ में 'मुग्मुंदरी कथा' प्राकृतम सं० १५०० में हरिवंशपुराणको पूरा किया है। ये रची है, मग्ने सार्धशतक ( सूक्ष्मार्थ-विचारमार ) पर काष्ठासंघी, माथुरान्वयी पुष्करगण के प्रसिद्ध श्राचार्योमें मं० ११७ में टीका लिम्बी है । मालम नहीं इनमेंस हुए हैं, गोपाचलकी गद्दीके भट्टारक थे और इन्होंने कोई चंक तथा मंत्रतंत्रादि-शाकि जानकार भी थ अनेक ग्रन्योंकी रचना की है। रहध कविने, अपने या कि नीं। श्रस्तु; ग्रंथकार के द्वारा उल्लिखिन धन सन्मतिचरित्रमें, इनकी बड़ी प्रशंसा की है और इन्हींकी श्वर गुरुकीन थे, इसको भी ग्वान होनी चाहिये। विशेष प्रेरणा तथा प्रसादसे सन्मतिचरित्र श्रादि ग्रन्थोंका यह ग्रंथ मुख्यतः प्राकृत भाषाम है, परन्तु कहीनिर्माण किया है। साथ ही, इनके शिष्योंमें हरिपेगा कहीं श्रीभ्रशभापा तथा संस्कृत भाषाका भी प्रयोग नामके शिष्यका भी उल्लेख किया है। यथा-- किया गया है। मंभव है संस्कन के कुछ प्रयोग प्रचालन मुणिजसकिसिंह सिस्सगुबायह, खेमचन्द-हरिसेणु तवायह। वैद्यक ग्रंथसि हो उठाकर रवावे गये हों। जाँचन की प्राचार्य नहीं जो इन यशःकीर्तिके शिष्य हरिषेणने निसान ज़रूरत है, और यह भी मालम करने की ज़रूरत है ही यह 'जगत्सुंदरीयोगमाला' नामका ग्रंथ योनिप्राभुत्त कि इस ग्रंथको रचते समय ग्रंथकारके मामने दुसरा कीनमा साहित्य उपस्थित था। के अलाभमें रचा हो और इन्हींका वह संस्कृत उल्लेख -मम्पादक हो जो पना-प्रतिके आधार पर ऊपर उद्धृत किया जा- वेलो, 'जैन ग्रन्थावती' पृ. २६२ 116

Loading...

Page Navigation
1 ... 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702 703 704 705 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759