Book Title: Anekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 684
________________ अनेकान्त [भाद्रपद, वीर-निर्वाण सं०२४६५ पाँचवें अधिकार के अन्तमें जो सन्धि दी है, और जिसे केकडीकी प्रतियोंमें उपलब्ध है उसमें "मुणिनसइत्तिचिकित्सा अधिकारके नमूनेमें ऊपर ( लेखमें ) उद्धृत विरहए" इस पदके द्वारा जो कि ग्रंथकी बाज़ बाज़ किया गया है वह उपाध्यायजीकी प्रतिमें निम्न प्रकारसे संधियों में पाया जाता है,ग्रंथके कर्ता 'यशःकीर्ति' नामक पाई जाती है __ मुनि मालूम होते हैं । इसीसे उपाध्याय जीने अपनी प्रतिमें "प्रामेणाइम गहणिरोयाहियारो सम्मत्तो" इस योगमालाको “जसइत्ति-विरचिता" लिखा है और इससे मालम होता है कि संधियों में ग्रन्थकर्ताके लेखक महाशयने भी इसी बातका प्रतिपादन किया है। नामका उल्लेख करना-न करना अधिकतर लेखकोंकी परन्तु ये यशःकीर्ति मुनि कौन हैं, इस बातका अभी इच्छा पर निर्भर रहा है। किसीको कुछ भी ठीक पता नहीं है । हाँ, एक बात यहाँ सबसे बड़ी बात जो इस ग्रंथके विषयमें विचारणीय प्रकट कर देनेकी है और वह यह कि संधियोंको है वह ग्रंथकर्ताकी है । पनाकी प्रतिसे तो यह मालम छोड़कर जिन मूल ४ गाथाश्रोंमें 'जसकित्ति' नामका होता था कि इस ग्रंथके कर्ता पं० हरिषेण हैं, जिसके प्रयोग आया है उनमेंसे तीन गाथाएँ तो वे ही हैं जिनलिये उनका निम्न वाक्य बहुत स्पष्ट है, जो उक्त प्रतिमें का पाठ लेखकने 'कर्तृत्वविषयक उल्लेख' शीर्षकके एक अंक रहित पत्र पर अंकित है-- नीचे उद्धृत किया है-- अर्थात् प्रारम्भकी १३वीं, "इति पंडितश्रीहरिषेणेन मया योनिप्राभूतालाभे २७वीं और शाकिन्याधिकारकी ३६वीं गाथा, शेप चौथी स्वसमयपरसमयवैद्यकशास्त्रसारं गृहीत्वा जगत्सुंदरीयोग- गाथा बालतंत्राधिकारकी अन्तिम ७७वीं गाथा है और मालाधिकारःविरचितः।" वह इस प्रकार है-- यह वाक्य उपाध्याय जीकी प्रतिमें नहीं है और इय बालतत्तममलं जं हु सुहयं रावणाइभणियं । न लेखक जीने केकडीकी प्रतिमें ही इसका होना सूचित संखित्तं तं मुणिउं जसइत्तिमुणीसरे एस्थ ॥ किया है। संभव है कि यह ग्रंथके उस भागमें है इनमेंसे २७वीं गाथामें तो "गिरहेन्वा जसइत्ती जो उक्त दोनों प्रतियोंमें नहीं हैं। उसे देखकर और महिवलए जेण मणुवेण" इस वाक्यके द्वारा इतना ही यदि यह वाक्य हो तो उसकी स्थितिको वहाँ ठीक बतलाया है कि जिस मनुष्य के द्वारा भूमंडलपर यशकीर्ति मालम करके ही कुछ कहा जा सकता है। इसके लिन ग्रहण किये जाने के योग्य है--अर्थात् जो मनुष्य उसे ग्रंथकी पर्ण प्रतिका उपलब्ध होना बहत ज़रूरी है। प्राप्त करना चाहता है, और ३६वी गाथामें “जसइत्तिउपाध्याय जीने लिखा है कि वे सितम्बर मासकी छुट्टियों में सरिसधवलो" पदके द्वारा 'यशःकीर्तिके समान धवलपना जायेंगे और उस समय अपनी प्रतिकी सहायता उज्ज्वल' इतना ही प्रकट किया गया है। इन दोनों पूना प्रतिको ठीक स्थितिको मालूम करके जानने योग्र गाथाओंसे यह कुछ भी मालभ नहीं होता कि यह ग्रंथ श्रावश्यक बातोंको स्पष्ट करनेका यत्न करेंगे । ये दोनः यशःकीर्ति नामके किसी मुनिका बनाया हुआ है। अब बातें होजाने पर प्रकृत विषयका विशेष निर्णय रही दूसरी दो गाथाएँ, इनमेंसे एकमें 'याउण' पद और सकेगा । अस्तु । दूसरीमें 'मुणिर्ड' पद पड़ा हुश्रा है और दोनों एक ही इस समय संशका जो भाग उपाध्यायजी तथा अर्थ 'ज्ञात्वा'--"जानकरके' केवाचक है। पहली गाथा

Loading...

Page Navigation
1 ... 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702 703 704 705 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759