________________
अनेकान्त
[भाद्रपद, वीर-निर्वाण सं०२४६५.
बुद्धका अनुयायी होगया है । तथा यदि वह साधु भिक्षा बातोंमें नहीं । वह साम्य दूसरी हो बातोंमें है । अात्मा मांगे तो कहना कि यहीं ठहरो, तुम्हें यही आहार मि. और निर्वाण-संबंधी बातोंमें तो विषमता ही है । लेगा। महावीरने यह सब सुना और वे स्वयं एक दिन उदाहरण के लिये कर्मसिद्धांत जैन और बौद्धका मिलता उपालिके घर आये । द्वारपालने उन्हें रोक दिया । द्वार- जुलता है । दोनों महापुरुष गुणकर्मसे ही मनुष्यको पालने अन्दर जाकर कहा कि निगंठ नातपुत्त अपने छोटा बड़ा मानते थे । दोनों ही महात्माओंने सर्व साधाशिष्योंको लेकर आये हैं, आपसे मिलना चाहते हैं। रण भाषामें अपना उपदेश दिया था। दोनों अहिंसाके उपालिने उन्हें श्राने दिया । परन्तु उपालिने श्रासन पर ऊपर भार देते थे और पशु-वधका घोर विरोध करते थे। बैठे बैठे महावीरको कहा 'श्रासन विद्यमान है, चाहें तो दोनों ब्रह्मणोंके वेदको न मानते थे । दोनोंका धर्म बैठिये ।' दोनोंमें प्रश्नोत्तर हुआ और उपालिने बुद्ध- निवृत्तिप्रधान था। दोनों श्रमण-संस्कृतिके अंग होनेसे शासनको ही उत्कृष्ट बताया ।
एक दुसरेके बहुत पाम थे । किन्तु दोनोंका सिद्धांत एक इस प्रकार के पाली साहित्यके उल्लेखोंको पढ़कर न था। महावीर श्रात्मवादी थे, बुद्ध अनात्मवादी, अत्यंत स्पष्ट है कि बुद्ध और महावीरका सिद्धांत एक न महावीर कर्मोका क्षय होनेसे अनंत चतुष्टयरूप मोक्ष था, तथा उन दोनों में केवल चयोका ही अंतर न था। मानते थे, बद्ध शून्यरूप-अभावरूप | महावीरका शासन
रात्रिभोजन-त्याग श्रादि दो-चार बातोका साम्य तप-प्रधान था, बुद्ध का ज्ञानप्रधान । देखलेने मात्रसे ही हम जैन और बौद्ध धर्मको एक नहीं हमारी समझमें बिना सोचे समझे ऐसे साहित्यका कह सकते । ऐसे तो महाभारत श्रादिमें भी 'वस्त्रपूतं सर्जन करना, साहित्यकी हत्या करना है । और जलं पिबेत्' आदि उल्लेख मिलते हैं। उपनिषद्-साहित्य एक श्राश्चर्य और है कि ऐसा साहित्य जैन समाज में तो शन और तपके अनुष्ठानोंसे भरा पड़ा है । शतपय स्वप भी बहुत जल्दी जाता है । अभी तक किसी ब्राह्मण श्रादि ब्राह्मण ग्रंथोंमें जगह जगह वर्षाऋतुमें महानुभावने उक्त पुस्तकके विरोधमें कुछ लिखा एक जगह रहना, आहार कम करना आदि साधुचर्याका हो, यह सुननेमें नहीं आया । अभी सुना है कि विस्तारसे वर्णन है। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि ब्रह्मचारीजाने जैनधर्म और अरिस्टोटल (अरस्तु ) के यह सब जैनधर्म हैं । हम इतना ही कह सकते हैं कि विषयमें कुछ लिखा है, और शायद अरिस्टोटलको यह सब श्रमण-संस्कृतिके चिह्न हैं । पर श्रमण-संस्कृतिमें भी जैन बनानेका प्रयत्न किया गया है । आशा है जैनके साथ साथ बौद्ध, आजीविक आदि संप्रदाय भी इस लेखके पढ़नेसे पाठकोंमें जैनधर्म और बौद्धधर्मके गर्मित होते है।
तुलनात्मक अभ्यास करनेकी कुछ अभिरुचि जागत जैनधर्म और बौद्धधर्ममें साम्य अवश्य है, पर उक्त होगी।